कहानी कभी ख़त्म नहीं होती ,हम सोचते हैं की जीवन के शुरू होते ही कहानी शुरू और जीवन के ख़त्म होते ही कहानी ख़त्म ! दरअसल जीवन तो कभी शुरू होता ही नहीं और नहीं होता हैं कभी ख़त्म। वो तो बस रूप बदल - बदल कर अपनी कहानी पूरी करने की कोशिश करता रहता हैं। एक ऐसी कहानी जिसका न कोई प्रारंभ हैं न कोई अंत ,एक ऐसी कहानी जिसे वह स्वयं अपने लिए लिखता हैं , जिसमें काम करने वाले सारे कलाकारों को वह खुद चुनता हैं ,जिसमें होने वाली हर घटना को वह स्वयं घटित करवाता हैं। वह सोचता हैं हर बार कि इस बार कहानी पूरी कर ही लूंगा ,पर कहानी का बस नाम -गांव -चेहरा बदल जाता हैं। पुराने कलाकार भेष बदल फिर आजाते हैं , पुरानी घटनाओं की पुनरावृत्ती फिर होने लगती हैं। वही पुरानी दोस्ती ,वही पुराना प्यार ,वही नफरत ,वही शत्रु भाव ,वही लालसाऐ ,वही कामनायें। मन बस भरा - भरा सा रहता हैं , कभी ख़ुशी के भावों से ,कभी दुःख के रागों से। समुंदर में ऊँची उठती लहरों की तरह हमारी मन और मस्तिष्क में उठती विचारों और वासनाओं की तरंगे झूम -झूम कर ऊँची उठती जाती हैं और हमें हर बार उन्ही किनारों पर लाकर पटक देती हैं जहाँ से शुरू किया था , जहाँ से कहीं और निकल जाना था। इस जीवन से मुक्ति तो कहीं हैं ही नहीं ,इस कहानी की संपुष्टि तो कही हैं ही नहीं। सागर के तल पर उगती - पनपती अनेकानेक बेलों की तरह जीवन की इस कहानी में कितनी -कितनी सारी बातें - मुलाकाते ,किस्से - संवेदनाएं एक दूसरे में गुथ्थमगुत्था हो जाती हैं। बिलकुल वैसे ही जैसे हमारे मस्तिष्क की नसे एक दूसरे में उलझी -उलझी सी फैली जाती हैं। हम चाहे कितने भी हिसाब -किताब लगा ले ,कितने भी जोड़ -घटा -गुणा -भाग करले ,हम कभी पूरा का पूरा हिसाब चुकता कर ही नहीं सकते ,कुछ लेन -देन तो फिर भी बाकी रह जाता हैं। हर बार कोई रिश्ता कोई नाता कहीं छूट जाता हैं जिसका कुछ देना या लेना बाकी हो ,जिसका कुछ छोड़ना और पाना बाकी हो।
जन्म लेते समय हम तय करके आते हैं इस रिश्ते को पूरा कर जाएंगे ,उस रिश्ते को निभा जाएंगे। प्यार की कोई कसक हमें बांधे रखती हैं ,जोड़े रखती हैं हर उस रिश्ते से जिसे हमने पूरी शिद्द्त से निभाना चाहा था ,जिसके लिए पूरा मिट जाना चाहा था तब भी जब हम जन्म की परिधि से ऊपर किसी अंतराल में चेतना रूपी एक कण बन ठहरे होते हैं ,सही समय के इंतज़ार में।
ह्रदय में अगर मधु का प्राशन करने की इच्छा हो तो समय आते ही हम मधुमाखी बन जन्म लेते हैं ,अगर मिठास के संग सुंदर रंगो से भी प्रेम हो तो तितली बन प्रकट होते हैं ,कभी इच्छा रही हो फुर्र्र से उड़ जाने की तो नन्ही सी चिड़ियाँ और किसी के पंख काटने से प्रेम हो तो कोई शिकारी। अगर मन में हो शांत भावनाएं , सेवा की इच्छाएं तो वृक्ष , और सुगंध बन बहने की इच्छा हो तो हम हो जाते हैं पवन। तेज बन प्रखर होने में आस्था हो तो हम ही बनते हैं सूर्य किरण और जब तम में बिता दे सारा जीवन तो बन जाते हैं ,भय ,दुःख ,कष्ट ,महामारी और निकृष्ट जीव।
जब प्रेम हो युगों - युगों से ह्रदय में तो हम ही लेते हैं सैकड़ों -हज़ारों -लाखों -अरबों जन्म ,जब तक उस प्रेम को न करले पूर्ण। हम ही बनते हैं खेचर,जलचर , भूचर ,हम ही होते हैं जो बनके मनुष्य अहंकार में देते हैं सब बिसर।
पर जीवन कभी नहीं होता ख़त्म ,हम जन्मों-जन्म भटकते रहते हैं ,इस देश से उस देश ,इस रूप से उस रूप ,इस राह से उस राह ,इस भाव से उस भाव पर शांति -संतुष्टि -कथा की इति कही भी नहीं मिलती।
हाँ इतना कर सकते हैं कि हर नाते हर रिश्ते ,हर चाह को एक मुकाम तक पहुँचा दिया जाए ,ताकि अगली बार वो कभी मिले तो सहायक बनकर ,मुस्कुरा कर मुक्त कर देने के भाव को बतला कर , साथ देकर ,बाँधने के बाद भी स्वतंत्र होकर ,स्वतंत्रता देकर।
कोई भी आस बाकी हो तो आज अभी ही पूरा कर ले , वरना यही डोर पकड़ के जकड लेगी और फिर कहानी को आपसे बार -बार लिखवाएगी।
कभी देखा हैं देवी को जल के ऊपर कमल पर बैठ वीणा के सुरों संग गुनगुनाते हुए ,कलम हाथ में पकड़ मंद -मंद मुस्काते हुए ? देखा हैं न ? उन्होंने भी अपनी कथा लिखी हैं ,उन्होंने भी कहानी लिखी हैं ,वो भी कहानी ही जी रही हैं ,पर जरा अलग निति से ,थोड़ी हटके रीती से। उनकी कहानी में भवसागर में उठती भाव - विभाव -आभाव की तरंगे उन्हें उठा के गीरा नहीं सकती ,उनकी कहानी में उन्हें किसी किनारे की आवश्यकता और खोज ही नहीं ,उनकी कथा में दुःख -दर्द ,व्यथा की मौजे कमल के पात से कुछ यूँ झर जाती हैं की उनकों छू भी नही सकती , वह भावनाओं की लताओं पर झूला नहीं झूलती ,नाही उन उलझी -लिपटी लताओं में खुद के अस्तित्व को कही खोतीं हैं , जलधि के हिलकोरे उनके दृढ़ वयक्तित्व को बित्ता भर भी हिला नहीं सकते ,वह भव से ऊपर हैं , भवभंजन ,भावातीत ,भवानी । हम सब गिरे पड़े हैं उस सागर में डोल रहे हैं , हिचकोलें खा रहे हैं वही जन्म ले ,वही मरे जा रहे हैं ,लिख रहे हैं पर न लिख पा रहे हैं ,न लेखन संपन्न कर पा रहे हैं। हम डूबे जा रहे हैं ,अश्रुओं से भीग -भीग मचलते जा रहे हैं , लिखना कुछ चाह रहे हैं ,लिखे कुछ और जा रहे हैं। देवी की कहानी शांति ,पूर्णता ,वैभव से परिपूर्ण मुक्ति का गीत हैं ,और हमारी अशक्ति ,अशांति , अभाव की प्रीत। सब लेखक का स्वभाव हैं ,कहानी यूँ ही लिखी जाती रहेगी ,आज इधर ,कल उधर अपनी -अपनी बोली में कही जाती रहेगी , क्षण -क्षण में रूप बदल के मंचन की जाती रहेगी। क्योंकि इस कहानी का न कोई अंत हैं न आरंभ ,सिर्फ दो आयाम हैं एक जिसे हम लिखते और जीते हैं दूजा वह जो शारदा लिखती और जीती हैं।
अपूर्ण .....
©राधिका आनंदिनी (डॉ. राधिका वीणा साधिका )