" लिखीस्तवं लिखिस्त्वं त्वमेका वाणी "
न जाने कितने दिन से मेरी उँगलियाँ कंप्यूटर के कीबोर्ड पर, मेरे ह्रदय रूपी अवनद्य वाद्य पर बजते त्रिताल की गति को थाम नृत्यमग्न होना चाहती हैं। बालपन की मस्ती में झूमती किसी चार वर्षीय बालिका की तरह मेरी अंगुलियां दृश्य जगत का भान भुला ह्रदय के ताल को थाम उससे आठ गुनी लय में कंप्यूटर के कुंजीपटल पर थिरकने को आतुर हैं।
कितना विचित्र हैं न यह ,जब हमारे पास कुछ लिखने का समय होता हैं तब न मन में विचारो का चक्रवात उठता हैं ,नाही आत्म प्रेरणा तूफ़ान का रूप ले ;हृदसमुद्र की भावनाओ का जल उथल-पुथल उन्हें शब्दों की नौका दे, पन्नो के किनारे दिखाती हैं। तब.......... तब एक शून्य होता हैं, उस शून्य का न तो कोई रूप होता हैं नहीं कोई भाव, उस शून्य में विचरते हम,शायद हम ही नहीं होते।भावनाओ का शून्य ,विचारो का शून्य ,जीवन शून्य …।
और जब हमारे पास एक क्षण का भी समय नहीं होता ,हमारी आत्मा चीख-चीख कर हमें कहती हैं तू लिख ,कुछ लिख ,अभी लिख ,छोड़ बाकि सब बस लिख। अरे !! लिख -लिख पर क्या लिख ? न विचारो की कोई संगति हैं ,न भावो का कोई ठिकाना ,न शब्द युग्मों का कोई जोड़ हैं ,न लेखन सौंदर्य का कोई तराना। क्या लिख ? लिखू क्या ?
पर हठी आत्मा। . यह कभी किसी की कही मानती हैं भला !
सुना था कभी लोग मोर पंख को स्याही में डुबो ताम्रपत्र पर लिखते थे। समय बदला लोग पेन-पेन्सिल की मदद से कागज़ पर लिखने लगे। समय कुछ और आगे बढ़ा अब लोग कंप्यूटर के कीबोर्ड पर अपने ह्रदय की बात टंकित करते हैं। एक बात न बदली वह थी लेखन या लिखना ।
कभी कभी सोचती हूँ लेखन मेरे लिए इतना अनिवार्य क्यों हैं ? शायद इसलिए क्योकि जब मैंने बोलकर भी बोलना नहीं सीखा था तब भी मुझे लिखकर अपनी बात कहना आता था।
गूंगा होना एक अभिशाप माना जाता हैं ,लेकिन संसार में कितने ही लोग ऐसे हैं जो बोल सकते हैं ,बोलते हैं पर बोलना उन्हें नहीं आता ,या कहे सही बोलना उन्हें नहीं आता।
सुनकर विचित्र लगता हैं किन्तु जैसे पढ़े-लिखे लोगो का अनपढ़ होना सत्य हैं वैसे ही बड़बोलों को भी बोलने की कला न आना सत्य हैं। हमें बचपन से सिखाया जाता हैं बेटा ऐसे बोलो ,ऐसे न बोलो पर कभी कोई सिखाता हैं की बेटा बोलते समय आवाज को ऐसे लगाओ। किस शब्द पर जोर दो ,किस वाक्य को बलवान बनाओ। यहाँ न्यास दो यहाँ विराम ,अल्प विराम दो। लिखते समय लेखक कुछ इस अंदाज़ से लिख जाता हैं की पढ़ने वाला उसके भावो - विचारो से लगभग सौ प्रतिशत सहमत हो जाता हैं ,पर क्या कोई हमें बचपन में स्वयं को वयक्त करने की कला सिखाता हैं ? नहीं न ! बोलना या कहना क्या हैं ,बोलना ,भाषण करना यह स्वयं को प्रकट करने ,वयक्त करने की कला हैं। हम तमाम भाषाएँ सिख लेते हैं ,व्याकरण जान लेते हैं लेकिन संवाद की आत्मा को हम नहीं जान पाते। हमें यह ज्ञात ही नहीं होता की हम कहते क्यों हैं बोलते क्यों हैं ?
जो अकेला बोलता हो उसे पागल इस अलंकरण से हम सुशोभित करते हैं पर हम क्या करते हैं ,हम बोलते हैं ,सुनाते हैं ,लोग सुनते हैं ,सुनकर भूल जाते हैं ,समझ नहीं पाते की हम क्या कह रहे हैं ,क्यों कह रहे हैं। क्योकि संवाद की कला को हम नहीं जानते। हमारी अवस्था उस पंगु वयक्ति की तरह होती हैं जिसके हाथ पैर तो हैं पर वह उनका इस्तेमाल ही नहीं जानता।
न्यूज़ चैनल लगाओ तो सुनाई देता हैं अमके नेता ने तमके नेता को अमुक शब्द कहे ,अमुक देश ने तमुक देश को ये कहा ,अमकी अदाकारा ने तमकि अदाकारा को ऐसा कहा और फिर शुरू हो जाते हैं दंगे,विषाद ,विवाद।
बोलना या कहना इतना आसान नहीं हैं। क्योकि कहने से पहले सुनना जरुरी हैं ,बोलने से पहले समझना जरुरी हैं। भाषा का विज्ञान समझ लेना बस नहीं हैं ,भाषा का प्राण ,संवाद की आत्मा ,सुसंवाद की कला जिसने सीखी वह विजयी।
हम जैसे संवाद शिक्षार्थियों के लिए लेखन ही शायद परम मित्र हैं। संवाद की कला में निपुणता आने तक ....
" लिखीस्तवं लिखिस्त्वं त्वमेका वाणी "
किसी भी वस्तु या वस्तुतत्व का सैद्धांतिक ज्ञान जानना अत्यंत आवश्यक होता है, क्योंकि यह वस्तुतः हमारे पूर्वजों के अनुभव होते हैं , उस ज्ञान के पश्चात ही हम स्वयं के ज्ञान/ संज्ञान का भावतत्व जान सकते हैं एवं अपने अनुभवों से उस ज्ञान को आगे बढ़ा सकते हैं यही प्रगति है .....यही भाषा, वाणी, लिपि आदि के लिए भी सत्य है , पहले सैद्धांतिक वैयाकरण व भाषा, लिपि ज्ञान जाने बिना हम स्वयं अपने को व्यक्त करने,बोलने, कहने, लिखने की कला का विकास नहीं कर सकते ---- अतः -भाषा का विज्ञान समझे बिना.. भाषा का प्राण ,संवाद की आत्मा ,सुसंवाद की कला नहीं सीखी जा सकती | इसके लिए पहले दूसरों को पढ़ना, सुनना अत्यंत आवश्यक है ....
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