उतरती साँझ की बेला थी वह ,कुछ गुनगुनाती सी। पास के बागीचे से उड़कर चिरोंजी के पत्ते और चिरोंजियाँ हमारे आँगन में बिखरी जा रही थी। चिरौंजिया ? वो मावे वाली ? नहीं ! माँ कहती थी इन्हे मत खाओ ये जहर हैं ! पर हम मानते ही नहीं थे ,चुन -चुन चिरोंजी जैसी दिखने वाली उन हमशक्ल चिरोंजियों को छुप- छुप खाते और खुश होते। बचपन था वो आखिर !!
उनका घर में न होना ,हमारी स्वतंत्रता का बिगुल होता ,उन्हें जो भी नापसंद था और माँ को जिससे विशेष आपत्ति नहीं थी वैसा सब हम उनके घर में ना होने पर किया करते। जैसे चददरो से टेंट बनना और सब संगियों के साथ उस टेंट के अंदर खिलौने खेलना। पाकगृह से नमक,मिर्च ,चावल उठाकर झूठा - झूठा खाना बनाना पीछे मैदान में पड़ी रेत से टीले बनाना उन टीलों पर चढ़कर खुद को राजा विक्रमादित्य समझना , पीछले आँगन में रखें टैंक में से बाल्टी डुबो पानी निकलना और एक दूसरे पर भर - भर फेंकना। पिताजी की नज़रो में यह सब समय की बर्बादी था ,किताबें और स्वर-वाद्य इतना ही और बस इतना ही उनकी नज़रों में समझदारी था।
अलबत्ता पिताजी घर पर न होने के समय हम जो कुछ भी किया करते , उस करने में मेरा कुछ सुनना भी शामिल था। फिल्म का एक गीत, उस उम्र में भी वह गीत मुझे भाता ,उस गीत के माने नहीं जानती थी मैं ,पर जानती थी सागर और सागर का किनारा। उत्तुंग विशाल सिमाविहीन सागर ..
माँ कहती थी जब कुछ साल भर की थी तब दिन - दिन भर नीला आसमान यह गाना सुनती और जैसे ही यह गीत खत्म होता मेरा रोना - धोना शुरू अब सोचती हूँ क्यों सुनती थी मैं ये गीत ? शब्द और सुरों का ज्ञान कहाँ था तब ? तब तो शायद 'माँ खाना दो ' यह वाक्य भी बोलना संभव नही था मुझे। फिर क्यों ?
आज, सुबह- सुबह कॉफी बनाते वक्त कही पास से एक श्रुति मधुर आवाज सुनाई दी ,वह स्वरमधुरा किसी डाल पर बैठी कुक रही थी ,कान शरीर का साथ छोड़ उस अंजान कोकिला के पास डाल पर विराजित हो गए ,उन्हें धर - पकड़ वापस ले आई।
स्टेशन पर सैकड़ो मानव शरीरधारियों की भीड़ थी ,गाडी संख्या दो -दो-पांच-पांच की घोषणा बड़े जोरो पर थी ,लोग आवश्यक -अनावश्यक न जाने किन - किन विषयों पर स्टेशन पर ही खड़े हो चर्चा सत्र कर रहे थे ,मानो रेलवे स्थानक नहीं संसद हो। पर मेरे दोनों कानो ने फिर कहीं और का रास्ता पकड़ लिया ,आँखों ने देखा ,स्टेशन की छत के निचे की ओर दो चिड़िया आपस में कुछ कह-सुन रही थी ,मुझे लगा जैसे एक ने दूजी से कहा ,बच्चा कहा गया ? अकेले कहा उड़ा ? मुझे अपने विचार पर हंसी आई।
गाडी में बैठी ,आँखे बंद की ,मन बरसो का सफर पल -पल में तय करने लगा ,अच्छा -बुरा ,ऊँचा - निचा ,कहा -सुना ,देखा -भला सब -सब देखने सुनने लगा मन। उस सफर में चाँद को घंटो देखता मेरा बालक मन था तो दर्शनशास्त्रियों के शास्त्र लिखान पे टिका करता मेरा मस्तिष्क। कही धुप थी कही छाँव। कभी आंसू थे ,कभी मनमुटाव ,कभी हँसना -खिलखिलाना, तो कभी संग था सपने सजाना और सब कुछ भूल जाना। खारघर स्टेशन से पनवेल स्टेशन
का सफर होता ही कितना हैं ,चंद मिनटों का ! मानसरोवर आते - आते रोज देखती हूँ दूर तक फैली हरियाली ,उस पार फैले कुछ पर्वत - पहाड़।
एक विचित्र पेड़ भी देखती हूँ हर रोज, जिसकी डाली पर पत्ते नहीं बस फूल ही फूल हैं !
जब कॉलेज ख़त्म हुआ लगा , अब पढाई पूरी हो गयी ,फिर जब डॉक्टरेट कर ली तो लगा , अब पढाई पूरी हो गयी ,जब संगीत में अवार्ड लिए लगा ,लगा संगीत आ गया ,जब लिखने पर वाहवाही मिली सोचा लिखना आ गया। बहुत कुछ आ गया था मुझे !! सोचा दुनिया जान ली मैंने ,आखिर विश्वविद्यालय की सबसे बड़ी डिग्री मेरे हाथ थी ,इतना ही नहीं तो कुछ बड़े मान - सम्मान चिन्ह मेरे साथ थे ,कोई भी विषय ऐसा न था जो सीखा -समझा न था। लगा यह संसार मेरा हैं ,जान लिया हैं मैंने इसे ,खुदको पहचान लिया हैं मैंने।
पर..... फिर बारी आई जीवन जीने की ,यु तो सब कुछ आता था ,किन्तु कही लगने लगा , कक्षा में सबसे ज्यादा नापास होने वाली ,सबसे बुद्धिहीन बालिका हूँ मैं। जिन किताबो को मैंने घोट के पिया था उनमे मेरे प्रश्नों के उत्तर नहीं थे ,जिन विषयों पर अधिकार सा पा लिया था वह जीवन की परीक्षा के विषय ही नहीं थे ,पढ़ा - पढ़ाया ,लिखा -सिखाया सब वयर्थ लगने लगा ,शास्त्र -दर्शन - विज्ञान कुछ भी काम नहीं आ रहे थे। जिन विषयों में मैंने विद्यालय- विश्वविद्यालय में सबसे ऊँचा क्रमांक पाया था उनका तो यहाँ कोई उल्लेख ही नहीं था। किताबों का लिखा -पढ़ा यहाँ तक की गुरु से पाई शिक्षा सब निष्काम हो गयी।
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अनुत्तरित प्रश्न -निरुत्तर मैं दूर तक फैले विशाल सागर को देख रहे थे, पारावार नहीं था जिसका वह उदधि ,वह अर्णव ,वह समुद्र।
मेरी भावनाएं ,मेरे प्रश्न उस सागर की गहराइयों में उतरते जा रहे थे।
मैंने पूछा सागर से " तुम तो आपार हो ,विस्तार हो तुम भी क्या मेरे प्रश्नों पर निरुत्तरित रहोगे ? शांत ,निश्चिन्त ,निष्चल , बने रहोगे ?
उसने कहा मैं जल हूँ ,खारा जल ,नदियां ,चट्टान ,जलधारा,सिप ,मोती हूँ मैं हूँ ,मेरे समक्ष कोई प्रश्न नहीं क्योकि सीमाएं नहीं हैं मेरी।
मुझे सागर के दर्प पर बड़ा क्रोध आया। मैंने पूछा " मैंने कौनसी सीमाएं बाँधी रे " ?
उसने कहा " विषयों की सीमाएं ,शब्दों की सीमाएं गणितो ,तर्क -वितर्कों की सीमाएं । सीमाएं बांधी ज्ञान की ,मान की ,जश - गान की।
जीवन वह नहीं होता जो सीमाओं से बंधा हो ,किसी विषय का आसरा लिए ,मुख्य धारा से बचते- बचाते पगडंडी पर चलता जीवन ,जीवन नहीं होता । जीवन वह नहीं होता जो अभ्यास की पुस्तक -पुस्तिकाओं में छपा हो ,किसी गुरु ज्ञानी ने कहा हो। जीवन तो प्रबल झंझावात में असीम विश्वास -शक्ति और स्वगुणो के संग कूद पड़ना हैं। जीवन विद्या और विषयों को रट्टा मारके पी जाना नहीं ,नहीं रटे -रटाये प्रशन -उत्तरो को जस का तस लिख मारना हैं। जीवन तो असीम हैं ,अगाध हैं ,अपरिमित हैं ,यह कोई शब्द -अर्थ ,मात्र एक प्रसंग , एक लहर ,एक उमंग नहीं ,यह संतुलन हैं ,शांति हैं ,अनुभव हैं। यह मात्र ज्ञान नहीं ,विज्ञान नहीं ,सद्ज्ञान नहीं ,यह पुराण या धर्मग्रन्थ नहीं ,यह लिखी - लिखाई ,बरसो से चली आई ,सुनी -सुनाई कोई कथा -कहानी नहीं ,यह एक कला हैं ,संपूर्ण कला ,बाकि सब कलाएँ और विषय जीवन -कला का अंग मात्र हैं। किताबो और ज्ञान की गुणवत्ता अकाट्य हैं किन्तु सिमित हैं।
सागर ने फिर कहा " तुम सुनती थी गीत वह ,क्योकि तुम्हे असीमितता में विश्वास था ,तुम्हारी आत्मा को विशालता का आभास था तुम्हारे मन को ज्ञात था संगीत की तरह ही जीवन वृहत है। स्वर और ताल को कोई बंधनो में बाँध सका हैं ? वह संसार में बसने वाले ,हर धर्म ,सम्प्रदाय ,जाती ,राष्ट्र,राज्य ,यहाँ तक की वृक्ष ,पर्वत ,पवन ,जल ,आकाश ,धरणी सभी में प्रस्फुटित हैं बिलकुल जीवन की तरह। तुम जानती थी जीवन आदि हैं ,अनन्त हैं ,कुछ सौ बरसो नहीं ,नहीं किसी नाम से जुड़ा हैं जीवन ।आसमान सागर सब असीमित ,विश्व ,संसार असीमित। फिर जीवन जीने के लिए सिमित विषयों का ज्ञान क्यों ? मेरे किनारें खड़े रह तुम सबसे अनमोल रत्न नहीं पा सकती ,उसे पाने के लिए तुम्हे मेरे अंदर खो जाना होगा ,मेरे अंतर में पलते वृक्ष ,जीव सभी से नाता जोड़ना होगा। यह आकाश देख रही हो तुम ? रोज न जाने कितने पंछी उड़ते हैं ,कितने सहस्त्र तारांगण इसके आँगन में खिलते हैं ,तुम क्या मानती हो ? तुम्हारी आँखों की सीमा तक दिखने वाला गगन ही केवल सत्य हैं ? तुम्हारी बुद्धि ,और नयनो की मर्यादा तक सिमित नील नभ ही केवल अस्तित्व में हैं ? एक बार सृष्टि की विशालता तो देखो. ,अपने आस -पास पलने - जीने वाली हर वास्तु ,हर प्राणी ,हर किट -कंटक ,हर मनुष्य और समस्त विश्व को अपना गुरु बना जीवन के गुर तो सीखो। ."
मैं शांत भाव से समुद्र को सुन रही थी।
पास ही लहरों से खेलता नन्हा सा बचपन दिखाई दिया ,बचपन जिसे यह ज्ञात भी नहीं था की कोई ज्ञान का मानी उसकी बहती नाक और मुंह पे चिपटी रेती देख कर हँस रहा हैं। मुझे अचानक याद आया , मेरा घर और घर में बैठा मेरा बचपन ,बचपन जिसे अब मैं अपनी बेटी कहा करती हूँ और जो मुझे माँ कहता हैं। असीम शक्ति हैं उस बचपन में , आठ बरस की उम्र में मुंबई के रहीसी जीवन में झूलता मेरा नया बचपन ,बड़े स्कूल में बड़ा सा बस्ता लिए ,बड़ी बड़ी बातें करता मेरा नया बचपन। मुझे याद आया कल ही इस बचपन पर क्रोध किया हैं क्योकि उसने किताबो में लिखे बर्ह्म वाक्य को रटना स्वीकार न कर ,टेरिस गार्डन में लगे फूल और फूलों पे बैठी तितलियों को पकड़ना चाहा था। मैंने खुदको धिक्कारा और स्वयं को वचन दिया ,किताबों में लिखे सत्य का ज्ञान जरूर करवाउंगी मैं बेटी को ,हर परीक्षा में बिठाउँगी ,सब विषय पढ़ाऊंगी, पर आँगन में जाकर पौधों की गीली माटी से खेलना ,बादलों के पीछे गिरते ओलो को समेट बूंदों के साथ हठखेलियां करना ,जीवन के हर रूप को समझ उसकी हर परीक्षा उत्तीर्ण होना जरूर सिखाऊंगी मैं। मुझे उसे बड़ी बड़ी डिग्रियां दिलाके, बड़े से बड़े ओहदे पे बिठा के ,बड़ा -बड़ा पैसा कमवाके ,जीवन के छोटे से छोटे प्रश्न पर अनुत्तरित होते हुए नहीं देखना ,प्रतिस्पर्धाओं में जीतते और यथार्थ में हारते हुए नहीं देखना ,वह वो बनेगी जो वह बनना चाहे ,वह सब सीखेगी जो सीखना चाहे ,वहां जरूर पहुंचेगी जहाँ पहुंचना चाहे। मेरी इच्छाओं ,इच्छाओं की पराकाष्ठाओं में ,पुस्तकों ,नौकरियों ,डिग्रियों के बंधन में उसे नहीं बांधना ,उसे जीवन देना हैं ,स्वतंत्र ,समृद्ध ,सशक्त जीवन,सचकह और सच्चा और संपूर्ण जीवन।
बरसो बाद ही सही आज समझ आया मुझे ,मैं वह गीत क्यों सुनती थी !!!!
मैंने सागर की ओर देखा और आनंद मग्न भाव से किसी सखी की तरह उसके लिए गाने लगी " सागर किनारे दिल ये पुकारे तू जो नहीं तो मेरा कोई नहीं हैं ".......
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