एक छोटी सी कहानी
उसने आँखे खोली और वो नदारत।
शायद था ही नही कभी वहां।
पर वो जानती थी वो वहां हैं। वो जिससे वह अभी-अभी बातें कर रही थी।
बातें क्या अपना मन परत दर परत खोल रही थी,कह रही थी " ऐसे नही जीना उसे,बाहरी तौर पर।"
"उसके लिए जीवन, यथार्थ ,भौतिक, दृश्य जगत नही,उसके लिए जीवन आत्मानंद हैं,उसके ह्रदय में प्रज्वलित जो अग्नि हैं उसका नाम जीवन हैं।"
कह रही थी " न जाने कबसे कहना था तुम्हें की तुम और कोई नही मेरा विश्वास हो।"
"विश्वास जिसका कोई नाम नही,धर्म नही,उम्र नही,जिसका कोई भौतिक रूप भी नही।
यही विश्वास उसने कभी मंदिर की मूर्ति में पाया था,आज जीवंत रूप में पाया हैं।"
कह रही थी," तुमसे कोई लोभ नही, तुमसे मोह हैं पर तुम मोह भी नही,तुम मुक्ति हो मेरे लिए ।"
इंसान जब पहली बार आँखे खोलता हैं तो महसूस होता हैं,जीवन कितना विकट हैं ।
आसपास भटकती, अपेक्षाओं के कवच से पूरी तरह लदी,जीवित शरीर ढोती मृतआत्माएं , मस्तिष्क की नसों ने एक क्षण में भेजे करोडों-अरबो संदेशो के जाल में उलझी, उस जाल को जीवन समझती, जर्जर मन से झीनी , सदैव अतृप्त आत्माएं ।
समाज की रीति,नीति,नियमो को स्वसंचालित पद्धति से कार्यान्वित करते अंदर ही अंदर खोखले देह। उन शरीरो के अंदर पैदा होती, मरती असंख्य मृर्गमारिचकाए। इन सब में मृतप्राय:आत्मन की गगनभेदी रुदन चीत्कारों में आनंदित होने का दिखावा करता जीवन।
सच जीवन कितना विकट हैं।
और इस विकटता को नष्ट करने का एक ही उपाय....विश्वास।
उसे उससे कुछ नही चाहिये था,कुछ पाने की अभिलाषा भी नही जागी शायद, जागती तो यह रिश्ता भी उसी भयंकर भौतिक- भ्रम , जग-जाल में फंस जाता और नष्ट हो जाता।
उसके लिए इतना ही काफी था की वो हैं।
वह उसकी माँ नही थी,बेटी नहीं थी, बहन, दोस्त नही थी, शायद कुछ भी नही थी, और यह "कुछ भी नही" ही शायद सब कुछ था।
ईश्वर के मंदिर में याचनाओं की फेरहिस्त ले जाने वाले उस परमेश्वर को कहाँ पाते हैं !!
जो सच्चे दिल से जाते हैं, उसको मूरत को देखकर ,उससे मिलकर ही सब कुछ पा जाते हैं, ईश्वर के समक्ष उनका खड़े हो पाना ही सब पा जाना होता हैं।
इस रिश्ते का भी कुछ ऐसा ही था,उसका होना ही काफी था, " वह हैं , बस यही काफी हैं , बस यहीं सब कुछ था।"
उस रिश्ते का कोई नाम नही था,उस रिश्ते में कोई स्वार्थ नही था,कोई आशा,अभिलाषा,इच्छा कुछ भी नही।"
'जग के किसी कोने में वह रहता हैं, वह हैं, और मुझे याद कर लेता हैं ,इतना ही और बस इतना ही सब कुछ था।"
उसने फिर आँखे बंद की,कहने लगी "शायद युगों में पाया वह एकमात्र रिश्ता हो तुम ,जो हर बंधन - अभिलाषा , इच्छा से परे हो।माँ,बहन,सखी कुछ नही हूँ तुम्हारी, कुछ होने की इच्छा से परे मेरे लिए तुम्हारा होना हैं, तुम्हारे होने का विश्वास ही जीवन हैं।और यही बस हैं।"
अब भय नही था कि आँखे खोलते ही वह खो जायेगा,शायद सारे भय समाप्त हो गए थे।
उसने आँखे खोली ,देखा वह बैठा मैस्कुरा रहा था,सशरीर नही सआत्मन,वह अब उसके साथ था,ह्रदय में जीवन का विश्वास बन।
इस रिश्ते का कोई नाम नही था,रूप नही था। बस विश्वास था,संसार की भयंकरता में अच्छाई और सच्चाई होने का,किसी के होने का विश्वास।।
©डॉ. राधिका वीणा साधिका
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