मुंबई के वाशी इलाके का रघुलिला मॉल ..शाम के आठ का समय .चम चम चमचमाती लाइट्स ,धूम धूम धमाकेदार संगीत और खरीददारी करते ,हँसते मुस्कुराते ,गाते ,बर्गर पिज्जा खाते लोग .मुंबई की शाम ....
हर शाम कुछ ऐसी ही ...और ऐसी ही एक शाम में मॉल के एक्सलेटर के पास तीसरी मंजिल पर खड़ा एक रोता हुआ छोटा बच्चा .एक बेसुरी आवाज कानो में गूंज रही हैं ,बिन तेरे बिन तेरे बिन तेरे कोई .............आने जाने वाले सब उस बेसुरी आवाज की तारीफों के पुल बांध रहे हैं ,कुछ नौजवान ताल दे रहे हैं .पर सीढ़ियोंके पास खड़ा रोते उस दो ढाई साल के बच्चे का व्यथित सुर किसको नहीं सुनाई दे रहा ,न वहाँ से गुजरते लोगो को न उस बच्चे की माँ को ................
शायद उनकी आँखे भी मॉल की चकाचौंध से अन्धियाँ गयी हैं जो उनके वो बच्चा दिख कर भी नहीं दिख रहा .
कहते हैं न कलाकार भावुक होते हैं ,वहाँ से गुजरती एक ऐसी ही कलाकार जो रिश्ते में मेरी बहन लगती हैं को वह बच्चा दिखाई दिया उसने बहुत कोशिश करती हैं की वह बच्चा अपना और अपने माता पिता का नाम ही बता दे ,पर वो अभी ठीक से बोल भी नहीं सकता ,उसे लेकर वह बिग बाज़ार के कस्टमर काउन्टर पर गयी ताकि यह घोषणा करवा सके की किसीका बच्चा खो गया हैं ,लेकिन अपनी चीजों की लिस्ट और फ्री के ऑफर्स बताने में व्यस्त वहाँ के अधिकारीयों को यह बात बहुत ही तुच्छ जन पड़ती हैं .हार कर मेरी बहन मॉल के सुरक्षा अधिकारीयों के पास गयी ,इंसानियत की मृत्यु शायद इसे ही कहते हैं जब वो अधिकारी यह कह देते हैं की "यह हमारा काम नहीं हैं ".बड़े प्रयत्नों के बाद मेरी बहन को एक जिम्मेदार पुलिस अधिकारी मिलता हैं जिसके पास वह उस बच्चे को सुपुर्द कर सके .
मुंबई आकर मैंने बहुत सी बाते सीखी और जानी है.लोकल की भाग दौड़ ,समय की बहुत कमी ,मॉल संस्कृति में ढलते लोग ,छम छम छम छ्मछ्माती जोरदार बारिश,पुरे दिन काम करके एक समय का खाना बमुश्किल जुटा पाते लोग ,बेसिर पैर बढती महंगाई ,बड़े बड़े हॉस्पिटल ,उससे भी बड़े अपार्टमेंट्स .........................
इतनी सारी बातों में एक बात और मैंने देखी हैं और सबसे ज्यादा महसूस की हैं ,वह हैं रिश्तो का नाममात्र शेष .जबसे यहाँ आई हूँ एक बात मन में बार बार चुभती हैं की लोगो से भरी मुंबई नगरी में किसीको अपना नहीं मिलता कभी कभार मॉल में मिल लेना ,अपने बारे में अत्यंत सिमित जानकारी देना ,सिमित ही जानकारी पाना.जिसे यहाँ के लोग सभ्यता की निशानी मानते हैं ,अच्छी बात हैं की किसीके व्यक्तिगत मामलो में दखल न दिया जाये.पर यहाँ बरसो बीत जाते हैं एक ही अपार्टमेन्ट में सटे हुए घरो में रहते हुए,लेकिन पडोसी का नाम तक पता नहीं होता.
पता नहीं कैसी जिंदगी हैं ये .और न जाने कैसी संस्कृति.इसे संस्कृति भी कहाँ जाना चाहिए या नहीं?हम इंसान हैं .कलाकार ,उच्चाधिकारी आदि आदि, सब बाद में .पर पहले हम मानव हैं ,मानवीयता के नाते ही सही एक दुसरे का ख्याल करना ,चाहना ,समय देना भी अगर मुश्किल हैं तो क्या कहा जाये?
आप ही सोचिये अगर वह बच्चा तीसरी मंजिल पर बनी उन लोहे की सीढियों पर से गिर जाता तो क्या होता ?वहाँ खड़े कुछ इंसान दर्द से भर जाते ,कुछ चुपचाप वहाँ से निकल जाते.हाँ न्यूज़ चेनलो की चाँदी हो जाती उन्हें एक और गरमागरम न्यूज़ मिल जाती .
ज्यदा क्या कहूँ ...बस यह सब देखकर अच्छा नहीं लगता .
दुर्भाग्यपूर्ण है यह...बहुत बहुत दुर्भाग्यपूर्ण !!!
ReplyDeleteहम भागे जा रहे हैं,दिन रात एक करके .....मगर कहाँ ?????
आपकी गलती नहीं है.... आप कलाकार हैं ना!
ReplyDeleteआपके द्वारा वर्णित स्थिति गम्भीर है। जीवन के अन्त में ही जाकर पता चलता है कि हमने तो सुख की परिभाषायें ही गलत निर्धारित की थीं।
ReplyDeleteसच कहा....बड़ी दर्दनाक घटना भी हो सकती थी ...विचारणीय लेख ...
ReplyDeleteपडोसी का नाम तो आजकल किसी को पता नहीं होता ! अब तो लगता है कि ऐसा ही होता है...
ReplyDeleteऐसी ही है यह माया नगरी मुंबई सबकी होकर भी यह किसी की अपनी नही है ।
ReplyDeleteआप मेरे मराठी ब्लॉग पर आईं टिप्पणी की धन्यवाद । नीचे मेरे ब्लॉग की है, इस पर चटखा लगा कर कभी भी आ सकती हैं ।
asha-joglekar.blogspot.com
क्षमा कीजीये नीचे ब्लॉग की URL पढें ।
ReplyDeleteयह देखकर अच्छा लगा कि आप अपने आसपास से अनभिज्ञ नहीं हैं। यह संवदेना बनी रहे। यह पढ़कर भी अच्छा लगा कि आप एक मिशन पर हैं विचित्र वीणा को जगह दिलाने के मिशन पर। शुभकामनाएं।
ReplyDeleteआज दिनांक 11 अगस्त 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट खोए खोए रिश्ते शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्कैनबिम्ब देखने के लिए जनसत्ता पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें।
ReplyDeleteधन्यवाद,अविनाश जी एक तो इसलिए की आपने मेरी पोस्ट पढ़ी और दूसरा इसलिए की आपने ही मुझे बताया की आज मेरी पोस्ट "खोये खोये से रिश्ते "(आरोही ब्लॉग)
ReplyDeleteदैनिक जनसत्ता में प्रकाशित हुई हैं
अफसोस होता है जब ऐसी घटनायें देखने में आती हैं किन्तु शायद आज की भागती जिन्दगी में लोग अभ्यस्त हो चुके हैं इस तरह के जीवन को...फिर भी संवेदनायें कहीं शेष हैं.
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