
फ़िर सुबह हुई ,फ़िर शाम आएगी ,फ़िर होगी रात,फ़िर सुबह .................न जाने कितने युगों से यह क्रम इसी तरह चल रहा हैं ,सुबह- शाम -रात ...युग बदले,लोग बदले,रहन सहन के तरीके बदले। न जाने कितने ही लोगो ने जन्म लिया और फ़िर इस दुनिया को अलविदा कहके चले गए ,लेकिन ..........सुबह शाम का यह क्रम नही बदला ।
हममें से अधिकतर रोज़ सुबह जागते हैं ,ऑफिस जाते हैं , शाम को घर लौटते हैं और रात को सो जाते हैं ।कुछ घर में ही रह कर कुछ दुसरे आवश्यक काम करते हैं . रोज़ जिस तरह सुबह शाम का क्रम नही बदलता ,अपवाद छोड़ दे तो हमारा यह दैनिक क्रम भी नही बदलता .इसी तरह से हम जीते हैं और एक दिन जीते - जीते गुजर जाते हैं ।
बदलाव ........जरुरी होता हैं ,जीवन में ,इंसान में ,जीवन से जुड़ी हर चीज़ में और हमारे दैनिक क्रम में । यह बदलाव ही होता हैं जो हमें जीने की स्फूर्ति देता हैं ,जीवन में नया रंग भरता हैं ,जीवन को जीवन बनता हैं । इसी बदलाव के खातिर हम कभी सिनेमा देखने जाते हैं ,तो कभी लम्बी सी यात्रा पर घुमने ।
साल शुरू होता हैं और एक एक करके हमारे उत्सव त्यौहार शुरू हो जाते हैं ।पहले इनका आना खुशी का आना माना जाता था,आज किसी के पास इनके लिए समय ही नही हैं .महज परम्पराओ का निर्वाह करने भर के लिए इन उत्सवो को मनाया जाना क्या उचित हैं ?

अब देखिये आज ही एक सोसायटी में गणेश जी बिठाये गए ,एक पुजारी स्पीकर पर बेसुरी आवाज़ में ,बेताली आरती गा रहा था ,उसे पता ही नही था की उसे गाना क्या हैं । कोई नही था जो उससे जाकर कहे की सुर में गाओ,या वहां बैठ कर आरती सुने । इस तरह से सिर्फ़ परम्पराओ का निर्वाह कर भर देना क्या सही हैं ?
हमारे उत्सव सिर्फ़ कोई रीती या रिवाज़ नही हैं ,ये सिर्फ़ ईश्वर की भक्ति का तरीका नही हैं. ये उत्सव हमारे जीवन के नित्य क्रम में आवश्यक बदलाव लाते हैं । जब हम ईश्वर के साथ होते हैं हमें मानसिक शांति मिलती हैं । सकारात्मक उर्जा मिलती हैं । इन उत्सवो के निमित्त से हम अपनों से मिलते हैं ,जिससे बड़ी खुशी शायद ही किसी इंसान के जीवन में कोई और हो । इन उत्सवो पर जितने तरह तरह के भोजन बनाये जाते हैं उनमे से अधिकांशत: उस मौसम में हमारे स्वाश्थ्य के अनुकूल होते हैं । एक नई रंगत ,उर्जा भरने के लिए आते हैं ये उत्सव ।
वरना तो वही सुबह ,वही शाम ,वही जीवन ,वही मरण ................
सुनिए अश्विनी भिडे देशपांडे जी का गया यह सुंदर गणपति भजन ।