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Thursday, April 27, 2017

श्वास .......



देख रही हूँ  पीले फूलो वाले उस पेड़ को ,आजकल हर जगह वही  दिखाई दे रहा हैं , मानो सारी सृष्टि में बस उसीका साम्राज्य हो।  हरी -हरी पत्तियों पर पीले -पीले फूल,पत्तियां कम फूल ज्यादा। सारी सड़को ,रास्तो ,गलियारों में बिखरे ये पिले फूल ,फूलो का वजन पेड़ ले ही नहीं पा रहा हो जैसे ,बरबस ही गिर पड़ते हो निचे।


मैं पल भर के लिए रुक कर उन्हें देख भर लेती हूँ ,सृष्टि  जैसी सुंदरी और कोई नहीं ,हर मौसम नए रूप-रंग के साथ प्रस्तुत ,कहती हो मानवी तुम कितने भी प्रयत्न कर लो ,कितने भी सौंदर्य प्रसाधन लगा लो ,मुझसे ज्यादा नए रूप तुम क्या धर पाओगी ? मैंने तो तुम्हे भी मोह पाश में बांध के रखा हैं।  

मैं अपनी हार मौन स्वीकार कर आगे बढ़ जाती हूँ। वो फिर मुझे रोकती हैं , कहती हैं   एक पल तो ठहर जाओ जरा ,माना की तुम मेरे समक्ष कुछ भी नहीं ,पर हो तो मेरी ही सार्वभौम सत्ता का एक छोटा सा अंश ,बोलो रूकती क्यों नहीं ? 

मैं क्या कहूं ? एक उच्छ्वास लेकर आगे बढ़ लेती हूँ ,वो फिर रोकती हैं ,मैं दौड़ लगा लेती हूँ ,मन ही मन कहती हूँ ,मैं तुम जैसी भाग्यशालिनी नहीं ,तुम अपनी लय में बहती हो ,अपने समय से चलती हो ,पतझड़ आने पर रूठ भी लेती हो ,वसंत आने पर फिर मुस्कुरा देती हो। किंतु मैं  ! मेरी लय ये संसार नियत करता हैं ,मेरा रूठना -मानना सब समाज की इच्छा पर निर्भर करता हैं। तुम तो माटी-पानी में गंध बन बह लेती हो ,उसीको भोग बना जी लेती हो ,पर मैं मानवी ,मुझे रहने को ईंट पत्थरों का मकान लगता हैं ,खाने को दो समय का भोजन लगता हैं ,मेरा भोग माटी नहीं ,माटी से निकले ,मॉल में मिलते ,रेफ्रिजरेटर में सड़ते , पुरानी  पैकेजिंग पर नयी डेट चिपकाए ,कागज के कई सारे टुकड़ों को दे मिलने वाले भोज्य पदार्थ हैं ,मेरा घर लोगो के नज़रो में कोई संग्रहालय हैं ,जहाँ उनकी अपेक्षा की कई चीज़े होना अनिवार्य हैं,मुझे अगर वह चीज़े होना आवश्यक नहीं लगता तो यह मेरा सरफिरापन हैं। मेरे कर्म उन रूढ़ियों का आधार हैं जिन्हे समाज मेरे लिए कई हज़ार युगो से तय करता आ रहा हैं।  प्रिय प्रकृति मैं तुम जैसी बड़भागिनी नहीं ! 

मेरे मन का यह मौन आलाप -विलाप भी जैसे वह अंतर्ज्ञानी समझ लेती हैं ,मुझे कहती हैं रुको ,जरा एक  पल तो मेरे सानिध्य में बिता लो ,क्यों भागे जा रही हूँ।  मैं सोचती हूँ ,न जाने कबसे एक पल ठहरना  चाहती हूँ मैं ,न जाने कबसे तुमसे मिलना चाहती हूँ  ,न जाने कबसे तुम्हारे और स्वयं के साथ समय बिताना चाहती हूँ  ,न जाने कबसे खुद को महसूस करना चाहती हूँ मैं ,तुम्हारी ही तरह  स्वयं में ही मुखरित हो ,विश्व से मुखातिब होना चाहती हूँ मैं। 
पर क्या करूँ ?  ये एक पल बरसो में एक बार भी नहीं मिल पाता मुझे ! कभी -कभी लगता हैं कही दूर ,बहुत दूर भाग जाऊ ,जहाँ कोई मुझे न जाने ,मेरा नाम - धाम कुछ न जाने और वही कही जाकर खुदको भूलकर मैं फिर एक बार तुमसे और स्वयं से मिलु।  पर जीवन की आप -धापी ,कुछ कर्तव्य ,कुछ जिम्मेदारी ,कुछ लक्ष्य ,कोई उद्देश्य ,कुछ इच्छाएं ,कुछ आकांक्षाएं सब मिलकर समय ही नहीं देते। कभी कभी सोचती हूँ इन सबमे मैं कहाँ हूँ ?  शायद कही नहीं !

 मुझे चाहने वाले मेरी अच्छाई किसमें हैं और किसमें नहीं तय करते हैं ,वो मुझे कहते हैं दौड़ लगा , जा भाग , खींच वो सम्मान किसी और के खाते में गिर रहा हैं ,उसे उठा ,खींच कर अपने खाते में ले आ ,वो कहते हैं अरे भाग तेज़ भाग ,रुक मत , समय खत्म हुआ जा रहा हैं ,तेरी उम्र बढ़ती जा रही हैं, मृत्य की देवी तेरे करीब आ रही हैं ,रुक मत ,ठहर मत तेज़ भाग ,तेरे अकाउंट्स में पैसा भर डाल ,इतना भर -इतना भर की तेरे बच्चो के बच्चो के बच्चो को भी न कमाना पड़े !

 वो कहते हैं ,अरी तू क्या मूढ़मति सी शांत बैठी हैं ,इधर फ़ोन घुमा ,उधर चिट्ठी डाल ,चाहे तेरी कला का दम क्यों न घुट जाए तू बस परफॉर्म करती जा ,चाहे तू कुछ भी बजा ,कैसे भी बजा , सुर -बेसुर कुछ भी लगा ,पर दौड़ साल के दस -बारह रिकॉर्डिंग तो निकाल ,चाहे राग की हत्या हो ,चाहे स्वरों का कत्ल फर्क नहीं पड़ता बस तू भाग इस स्टेज से उस स्टेज चढ़ जा ,कार्यक्रम चाहे कितना भी घटिया क्यों न हो अपना प्रोफाइल बढ़ा। वो कहते हैं और मैं कुछ कदम भागती हूँ ,फिर जोर से चीत्कार करती हूँ ,मुझे नहीं भागना ,सम्मान -असम्मान मुझे कुछ भी नहीं चाहिए ,मुझे मेरे सुर चाहिये मुझे उनका और तेरा साथ चाहिए स्वयंकृति प्रकृति।  

मुझे अपना मानने वाले करते रहते हैं मेरे चलने -भागने की दिशाओं का निर्धारण ,मेरे कर्तव्यों का अनुमोदन।  

मेरा समय मेरा कब रहता हैं ? मेरे भावों को प्रकट होने का समय ही कब मिलता हैं ? लोग कहते हैं ,यह सामाजिक दृष्टि से उचित नहीं ,वह उचित हैं। वो कहते हैं बरसो से रुकी पड़ी हैं ,मैं कहती हूँ मैं रुकी ही नहीं , पर मेरी अपनी एक लय हैं ,एक बुद्धि ,एक धर्म ,एक इच्छा हैं। 

वो कहते हैं। तू मुर्ख हैं ? बता अकॉउंट में पैसा कितना हैं ,तेरे घर के बहार तेरी कितनी गाड़ियां हैं ,तेरी सोशल प्रोफाइल्स में तेरे फॉलोवर की संख्या कितनी हैं ? तेरे पास कितने की प्रॉपर्टी हैं ? तेरे बाल - बच्चो  का भविष्य क्या हैं ? तू बावली हैं ,तेरी उपयोगिता तेरी कमाई से हैं ,तेरी पास की हुई डिग्री से ,तुझे मिले हुए सरकारी -असरकारी प्रशस्ति पत्रों से , तूने सोशल मिडिया पर दिखाए तेरे कार्यक्रम की फोटो से हैं ,तूने बच्चो को दिलवाएं खिलौनों  से हैं ,उनके लिए बनाये असेस्ट्स से हैं ,तूने रिश्तेदारों को दिलवाये गिफ्टों से हैं ,इससे कोई फर्क नहीं पड़ता की तू क्या चाहती हैं ! कोई फर्क नहीं पड़ता की तू क्या बजाती - गाती हैं ,तू कैसे सिखाती हैं ,तू कैसे संस्कार देती हैं ,तू क्या सोचती हैं एक मनुष्य के  रूप में समाज और संसार को क्या और कितना देती हैं  !!!

मैं कहती हूँ उनका क्या करूँ जो कई सौ की संख्या में मेरी अलमारी में पड़ी कचरे सी सड रही हैं ,जिन्हे पाने -कमाने के लिए मैंने सालो गवाए ,वो डिग्रियां तो मुझे शांति नहीं देती ,डॉ ,गोल्डमेडिलिस्ट ,थेरपिस्ट ,सॉफ्टवेयर इंजीनियर ,मैडिटेशन गुरु और न जाने कितनी डिग्रियां , क्या हैं ये सिर्फ कागज के टुकड़े !!! और जो मिले पड़े हैं प्रशस्ति पत्र उनका  क्या ? क्षणिक आनंद और फिर अलमारी का जीवन भर का बोझ और वो जिन्हे कहते हैं सम्मान चिन्ह उनको मेन्टेन करके रखने में साल में एक बार हज़ारो रूपये खर्च हो जाते हैं और फिर इन्ही हज़ारो रुपयों को कमाने के लिए एक दौड़ लगानी पड़ती हैं। नहीं मैं विरुद्ध नहीं हूँ इन सबके पर  मैं एक मनुष्य हूँ ,कोई नाम ,कोई काम नहीं। संगीत -लेखन - समाज कार्य मेरा आनंद हैं ,धन मेरे उपभोग के लिए हैं ,धन प्राप्ति के लिए मैं नहीं। 

प्रिय प्रकृति मैं जब ह्रदय में आनंद के गीत गा बिन कारण हँसना खिलखिलाना चाहती हूँ यह संसार मुझे तब पागल कहता हैं ,मैं जब मंदिर की देहरी पर बैठकर घंटो बिताना चाहती हूँ तब मुझे ये बावरी ,विचित्र प्राणी कहता हैं ! मैं तुमसे पूछती हूँ तुलसी तुम भी तो हर मंदिर की देहरी पर बैठती हो ,तुम्हे क्यों पूजता हैं ये संसार ? क्यों नहीं कहता  बावरी ? क्योकि तुम प्रकृति का एक अभिन्न भाग हो ? मैं भी तो हूँ न प्रकृति का एक अहम् भाग ,मैं स्वयं भी तो प्रकृति ही हूँ न ,फिर मुझमे और तुममे यह द्वैत क्यों ,यह दोहरा न्याय क्यों ?

मेरा न्याय मनुष्य की अदालत तय करती हैं ,वह अदालत जो न्याय देने में जीवन को खींच लेती हैं ,प्राणों को शोष लेती हैं ,न्याय पाने तक कुछ श्वासे बचती हैं ,और काठ का खोखला शरीर जिसे न्याय - अन्याय से कोई लेना - देना शेष नहीं रहता। 

सखी प्रकृति मैं एक दीर्घ श्वास लेना चाहती हूँ ,जीवन का श्वास ,जीवन से परिपूर्ण श्वास ,तुझमे लिपटा मुक्त ,आनंदी श्वास। उस एक दीर्घ श्वास में स्वयं से मिलना चाहती हूँ ,सुना हैं की मृत्यु के समय हर इंसान एक मुक्त -दीर्घ श्वास लेता हैं ,पर मैं मृत्यु का इंतज़ार नहीं करना चाहती ,मरते समय दीर्घ श्वास ले खुदको पहचान फिर जन्म ले ,फिर भाग -भाग के फिर मृत्यु के समय दीर्घ श्वास लेने के इस चक्र्व्यू में नहीं फंसना चाहती। मैं मुक्ति का दीर्घ श्वास चाहती हूँ ,प्रकृति तेरी ही तरह जीवन चाहती हूँ ,तू भी रूकती नहीं कभी पर किसी मान - सम्मान के लिए नहीं खिलती, किसी लोभ स्वार्थ के लिए नहीं जीती ,किसी धन -धान के लिए नहीं भागती ,मैं मेरा कर्म करना चाहती हूँ ,मेरी गति से ,मेरे समय से। मैं घडी  की सुइयों की डोर की पुतली नहीं ,मेरे घर में घडी ही नहीं ! 

प्रिया प्रकृति ,तुझसे क्या छुपाऊं ? पर यहाँ सब मोह -माया हैं , हर कोई अपना स्वार्थ सिद्ध करना  चाहता हैं ,किसी को पैसा चाहिए ,किसीको तरक्की ,रोज के झगडे हैं। कोई पल भर रुकना नहीं चाहता ,कोई समझना नहीं चाहता ,जीवन असल में क्या हैं ? पाना क्या हैं ? किसकी खोज हैं ,बस सबको भागना हैं  तेज़ बहुत तेज़ दूसरे से तेज़ ,भाग के किसीको सामान इकट्ठा करना हैं किसी को सम्मान ,सब धोख़ा हैं ,सब झूठा मोह ,सब काली माया।  मैं इस काली माया में फ़सना नहीं चाहती ,नहीं किसी स्वार्थ की सिद्धि करना चाहती हूँ ,न किसी लोभ में जकड़ना चाहती हूँ। मैं मानवी हूँ ,प्रकृति का दूजा रूप ,प्रकृति देवी तुझ सी ही सरल ,सहज हो जीना चाहती हूँ ,तू पुष्पों को पाने के यत्न नहीं करती ,न पुष्प तेरा अंतिम उद्देश्य हैं ,न तुझे इस बात से कोई संबंध हैं की तेरे तुलसी ,औदुम्बर ,अश्वत्थ रुप को कोई पूजता हैं या नहीं ,नहीं फूलो की माला से लदी - फदी सुंदर कन्या का सौंदर्य गान तेरे जीवन का अंतिम उद्देश्य हैं ,तू तो  बस स्वयं के लिए ,अनजाने ही खिलती- सवरतीं ,बनती - सजती रहती हैं।  जो तेरे साथ आता हैं उन्हें जीवन देती हैं ,जो नहीं आता उनके पीछे तू नहीं दौड़ती।  

ठीक तेरी ही तरह मुझे जीना हैं ,तू ही मेरी गुरु और संगिनी हैं ,तेरी ही तरह मेरे सुरों में स्वयं को और तुझे भिगोना हैं ,तेरी ही तरह संसार के लिए कार्य करके स्वार्थी इच्छाओं से विलग रहना हैं ,सच कहूं  तो मुझे मृत्यु से पहले पल भर  ठहरना हैं , एक मुक्त दीर्घ श्वास लेना हैं ,और जीवन को जीना हैं ,सच्चे अर्थो में।

 शायद यही निष्काम कर्म हैं ,शायद यही योग हैं ,शायद यही कृष्ण हैं। 

बस इतना ही ......... 





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