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Thursday, November 16, 2017

आज कितने बरस हुए उसे पुकार रही हूँ।न जाने किस घने अंधकार में खोया - सोया हैं।कई बार कोशिश की हाथ पकड़ कर लौटा ले आऊं।पर उसे मुझसे ज्यादा फ़िक्र हैं मेरे सम्मान की, बिन वज़ह बढ़ते मेरे अभिमान की ।
डरता हैं वो की अगर उसके साथ मुझे किसीने देख लिया तो समाज क्या कहेगा ? मेरे बारे में हर इंसान क्या सोचेगा !
उसे कई बार समझाया मैंने मुझे लोगो की चिंता नही।
खुश तो वह भी होता हैं मेरा साथ पाकर, पर जब भी खिलखिलाने लगती हूँ, उसकी नज़र पड़ती हैं समाज के किसी नायक - पुरोधा पर ,वो झट से छोड़ देता हैं हाथ मेरा और मैं सारी खुशी भूल बन जाती हूँ वो, जो बनाना चाहता है मुझे समाज !
कई सपने देखे थे हम दोनों ने साथ साथ !  पहुँच तो गयी सपनो के आंगन तक उसके बिना, पर एक भी सपना जी नही पायी जी भरकर....
वो दिन...जब हम साथ थे।
बादल, बरखा,चाँद -सितारें मुट्ठी में ले घूमते हम।आँखों की चमक कुछ यूं हुआ करती थी कि चाँदनियाँ भी शरमा जाएं, इतना हँसते - गाते -गुनगुनाते की देव - गंधर्व भी संगीत छोड़ हमारा प्रेम गीत सुनने आ जाते।
खुशियों की खरीद नही करनी पड़ी कभी हमें।
पत्थर-पानी-हवा-फूल सब हमारी ख़ुशियों के साथी बन जाते।
दो वक्त का आधा-अधूरा खाना, मैले -कुचैले कपड़ो का ओढ़ना,न कोई बयूटी प्रोडक्ट न कोई गाड़ी- कार। बस धूल माटी को चंदन बना चेहरे को सजा लेते,जहां जाना हो,दुखते- दर्द करते पैरों से दौड़ते पहुँच जाते।
कभी जरूरत ही नही लगती किसी कार की,किसी पार्लर की,सौंदर्य बढ़ाने के किसी सामान की !
तब बैंक बैलेंस नही था,नही कोई इन्वेस्टमेंट प्लान खरीदा था हमने,न ख़रीदा था करोड़ो का लाइफ इंश्योरेंस प्लान पर कभी डर नही लगा न जिंदगी जीने-खत्म होने का , न किसी ख़तरे से खेलने का।हम ख़तरों को खेलते नही थे शायद ! ख़तरा ही जीवन था हमारा ,पर कोई ख़तरा न हमारा जीवन छीन पाया न हमें डरा पाया।
वातानुकूलित यंत्रो से कोई वास्ता नही था हमारा। पैरों में चप्पल डाले बिन युहीं कड़कती धूप में चल देते हम दोनों, न सर पे छाता न ac वाली कार। न चेहरे की परतें ढांकता मख़मली सुंदर रुमाल।
मुझे तब भी था ज्वेलरी पहनने का शौक़ ,वो भी खरीद के लाता रोज़ रोज़ । सड़क के किनारे ज़मीन पर बैठी दादी ने बेची,उसने मेरे लिए तोहफ़े में लायी वो दो- पांच रुपये की कांच की हरी-नीली-पीली चुड़ी, कांच के टुकड़ों से सजे प्लास्टिक के कंगन और कर्णफूल । आज तनिष्क ,कल्याण ज्वेलर्स के अलंकार भी फ़िके लगते हैं मुझे!
हम कभी बड़े होटल्स में नही गए संग,हम खाते सायकिल पर सवार अंकल ने बेचा चूरण, खट्टी इमली,घर मे जरा से घी में बनी शक्कर रोटी ,पर हम दोनों का साथ ही कुछ ऐसा था कि वो शक्कर रोटी किसी केक या फाइव स्टार में मिलती स्वीट रवॉइली विथ लाछा रबड़ी से कई-कई ज्यादा स्वादिष्ट और मीठी लगती।
कभी कोई डाइट प्लान नही फॉलो किया हम दोनों ने न फिटनेस मन्त्रा जपा।बस दोनो यूँही निकल पड़ते सुबह से सैर पर।कभी भागा-भागी कभी पकड़ा-पकड़ी । अंत मे दोनो एक दूसरे से लिपट सो रहते घँटों ,अलार्म और समाज दोनों से बेफिक्र !

सच तुमसे दूर होकर बिल्कुल भी खुश नही हूँ , तुम्हें अपने अंदर जिंदा रखने की बहुत कोशिशें करके थक चुकी हूं।तुम्हारा साथ पाकर फिर जी उठूंगी और हाँ इस बार नही सुनूँगी एक भी बात तुम्हारी। मैं आ रही हूँ तुम्हें लौटा लाने ,अब मैं तुम फिर साथ होंगे।घर पर, ऑफ़िस में,लोगों के सामने ,समाज के सामने सर उठाकर साथ चलेंगे।
बहुत जी ली धीमी मौत तुम्हारे बिन मेरे साथी।
अब तुम और मैं सदा साथ होंगे मेरे "बचपन" ।
बचपन ......हाँ तुम , मेरे बचपन ...
 जिसको खोने के बाद सब पाकर खुदको खो दिया मैंने, सब कुछ पाया ,कितना जिया पर सब बेकार ही जिया मैंने।
आज बच्चो का दिवस हैं, और मुझे याद आ रहा हैं आकाशवाणी में हम दोनों ने  सफ़ेद फ्रॉक पहन गुलाब लगा कार्यक्रम में गाया एक गीत " फूल गुलाबों के मुस्काये नेहरू चाचा तुम याद आये"।
उन गुलाबों की कसम ,चाचा की कसम अब जिऊंगी तो बस तुम्हारे संग मेरे बचपन।

*जो मेरी तरह बचपन को मिस कर रहे हैं और जो फिर से एक बार बचपन के साथ जीना चाहते हैं,उन्हें बच्चों के दिन की शुभकामनाएं*😊
© राधिका वीणासाधिका

*कुछ पोस्ट्स में ये कॉपीराइट लगाना भी बचपने को नागवार सा लगता हैं😊

Tuesday, September 12, 2017

विरक्ति....

वो मेरा ही था जिसे मैं मेरा भूतकाल कहती हूँ ख़ुशी के दिन थे, आकाश से मन भर की हुई बातें थी ,चाँदनियां दोस्त हुआ करती थी। दर्द भी थे ,कुछ वहम भी , कुछ रचे-गढ़े बादल के टुकड़े थे जिन्हे  मैं सपने कहा करती थी . कुल मिलाकर वो मेरा बचपन था . फिर सपनो ने मुझसे आगे दौड़ना शुरू किया ,ये कौनसा लोक था जहाँ सब कुछ अपरिचित था फिर भी परिचित था। मल्हार के रंग कब रेगिस्तान की धूल हो गए पता ही नहीं चला वो वक्त था ,गुजर गया। लगा जैसे बहुत बड़ी लहर आयी मैं समुंदर की गहराई में किसी श्रीधाम में शांत लय में डोल रही थी ,क्षीरसागर में आया भूचाल कुछ तेज़ था उम्र के कुछ साल बीत गए ऊँची आसुरी लहर बहुत ऊँचा उड़ा ले गयी ,कई थपेड़े खाये ,डूबी -उछली और धड़ाम से अब जाकर सागर तट पर आ गिरी। अब जो आयी हूँ , तो समझने में ही वक्त जा रहा हैं की कहाँ हूँ ? आँखे खुल रही हैं ,मन अब भी थका हैं ,मस्तिष्क उठके झूम रहा हैं ,बावला नच रहा हैं ,कह रहा हैं नच, तू बच गयी,बढ़ ,मचल ,उछल ! 

पर अब जिंदगी के उन फेरो में पड़ना नहीं चाहती मैं, नहीं किसी फूलों से लदी डाली पर झूमना चाहती हूँ ,नहीं सावन के गीत गाकर बाबुल को बुलौवा भेजना चाहती हूँ। नहीं आँगन में लगे मधुमालती के पौधे के मीठे रस को चख उसकी मिठास से ईष्या करना चाहती हूँ। नहीं समय की साम्राज्ञी बन सब कुछ पाना चाहती हूँ ,नहीं किसी से कुछ आगे बढ़ खुद पे इठलाना चाहती हूँ।  

अब न दर्द सहने की क्षमता हैं ,नहीं वो समय जो मुझे दर्द दे सके। वो दुःख ,वो दर्द,वो स्वप्न ,वो इच्छाएं ,वो आस्थाएं ,वो आनंद सब कुछ मेरे अंदर है आज भी ,वह छूटता नहीं ,क्योकि जितना मेरा होना सत्य हैं उसका भी होना सत्य हैं ,उसे झुठला नहीं सकती ,भुला भी नहीं सकती और खुदसे लिपटा भी नही सकती ,क्योकि उसे झुठलाने से सच झूठ नहीं बन जायेगा ,उसे भुलाने से वह भूल नहीं हो जायेगा ,उसे छूटाने से वह कही भी छूट नहीं जायेगा ,मेरा भूतकाल मेरा हिस्सा हैं वो मेरे शरीर के ,मन के साथ ,आत्मा के साथ उतना ही आगे बढ़ जायेगा जितना मैं उसे भूलना चाहूंगी ,उससे छूटना चाहूंगी ,उसे दूर करना चाहूंगी। शायद इसलिए वह भूत हैं वह !

वह भूत क्यों हैं और उस भूत का अस्तित्व क्यों और कब तक हैं जानती हूँ। तब तक और वही तक जब तक मैं उससे जुडी हूँ। जुड़ने से यहाँ मतलब टूटने की ,छूटने की ,भूलने की इच्छा से जुडी हूँ। दर्द को भुलाने की इच्छा ही दर्द को जगाने की शक्ति हैं ,दर्द को समझे जाने की इच्छा दर्द की संजीवनी ,दर्द को दूर करने का प्रयत्न स्वयं से मात्र छल !

मैं उस दर्द को अपनाना चाहती हूँ ,पुरे भाव से। अगर मेरा भूतकाल कभी आनंद था ,कभी दुःख तो वो दुःख ,वो आनंद सब कुछ मेरा ही तो था ,वो दर्द इसलिए हुआ क्योकि मैंने अपनी खुशियों को ,अपने अस्तित्व को ,अपने आप को उससे पूरी तरह जोड़ लिया। यह भूल ही गयी की यह क्षण, मेरे अस्तित्व से बढ़कर नहीं ! यह भी भूल गयी की यह पल ,यह समय ,यह भावनाएं ,यह नाते-रिश्ते ,यह लोग, यह सब मैं नहीं !जुड़ाव क्षणिक सुख देता हैं और बहुत दुःख। तो अब मैं जुड़ना नहीं चाहती। मैं बैराग धारण नहीं कर रही ,नहीं मैं कही दूर जा रही ,न मैंने यह भौतिक जीवन तज ,दिया न रिश्तो नातों से मुख मोड़ लिया। सन्यास कोरा भरम हैं ,स्वयं से किया गया छल हैं  ,अपने आप से बोला गया झूठ हैं। ऐसी विरक्ति जो सन्यासी बना दे आत्मा से उठती हैं और संत बना देती हैं। युगो तक फिर इस दुनियाँ में आना नहीं होता। मैं संत नहीं बनना चाहती ,मेरी विरक्ति मुझे किसी से भी तोडना नहीं चाहती ,कुछ भी छोड़कर निकलवा लेना  नहीं चाहती। 

मैं अब बस शांत हो जाना चाहती हूँ ,शांति बन जाना चाहती हूँ ."Above from all attachments" मैं इसी जीवन में मुक्त हो जाना चाहती हूँ।  
मैं किनारो से जुड़ के बहना चाहती हूँ ,मैं अपनी गति में विचारना चाहती हूँ ,मैं आनंद मेघ संग नृत्य करना चाहती हूँ पर मात्र एक नदियां की तरह ,प्रतिपल -प्रतिक्ष्ण बहती सरिता की तरह ! नदियाँ जो उगम से प्रारम्भ होती हैं ,पर उगम को छोड़ विस्तारित होती हैं ,उसे उगम से बिछुड़ने का दुःख नहीं होता वो बस अपने पथ पर बढ़ी चली जाती हैं , मंद -शांत -अविरत ! मार्ग में वृक्षवल्ली आती हैं उस पर फूल बिखराती हैं वो आनंद मग्न होती हैं ,उन पुष्पों को एक बार आलिंगन में लेती हैं उनके संग आगे बढ़ जाती हैं ,पुष्प कुछ देर संग चलते हैं फिर अंतर में कही खो जाते हैं पर वह बिना किसी शोक के बहती जाती हैं ,आगे पहाड़ आते है ,ऊंचाइयां आती हैं ,कठिन आड़े-टेड़े रास्ते आते हैं  ,पर वह स्थिर भाव से उन्हें भी पार कर जाती हैं। एक ऐसा मोड़ आता हैं जहाँ बड़ी ऊंचाइयों से वह धड़धङाकर वह निचे गिर पड़ती हैं ,क्षण मात्र में निचे गिरने का दुःख बिसर वह उन नन्हे -नन्हे पथ्तर के टुकड़ो को देखती हैं जो सूर्य किरणों से मिलती उसकी चमक को देख खुद भी आँखे चमकाने लगते हैं। उसे क्षणिक मोह हो उठता हैं ,यही थम जाने का मन करता हैं ,वह कुछ और तेज़ी से आँखे चमका तुरंत वहां से आगे बढ़ जाती हैं। राह में कोई तीर्थ आता हैं लोग उसे गंगा ,जमुना कह पुकारते हैं ,कोई आरती सुनाता हैं ,कोई दिए बहाता हैं ,उसके पास जो भी हैं वह इन अबोध बालको को निछावर कर वह पुनः आगे बढ़ जाती हैं बिना एक क्षण का भी विलम्ब किये ,शांत भाव से बिना रुके -बिना थमे -बिना थके वह अमृतवर्षिणी बहती जाती हैं ,बढ़ती जाती हैं और फिर उसी शांत भाव से सागर में मिल जाती हैं। अस्तित्व  को खोकर सागर बन जाती हैं। कौन जानता हैं सागर में मिली नदियां फिर कभी कही से कोई धारा बन के फिर किसी नदी का सृजन न करती हो ! खारा पानी ,खूब अंदर जाकर किसी मीठे पानी का झरना और फिर किसी माँ कावेरी का हिस्सा न बनता हो ! इसलिए ही आदि ही अंत हैं और अंत ही प्रारम्भ ! जीवन प्रतिक्षण भूतकाल हैं और भूतकाल ही वर्तमान ! सो अब इस आदि - अंत के खेल को बिना किसी जुड़ाव के सहज भाव से खेलना चाहती हूँ। अब बस एक नदियां बनके बहना चाहती हूँ। 

विरक्ति के रंग में रसरंग हो जाना चाहती हूँ। 

Thursday, April 27, 2017

श्वास .......



देख रही हूँ  पीले फूलो वाले उस पेड़ को ,आजकल हर जगह वही  दिखाई दे रहा हैं , मानो सारी सृष्टि में बस उसीका साम्राज्य हो।  हरी -हरी पत्तियों पर पीले -पीले फूल,पत्तियां कम फूल ज्यादा। सारी सड़को ,रास्तो ,गलियारों में बिखरे ये पिले फूल ,फूलो का वजन पेड़ ले ही नहीं पा रहा हो जैसे ,बरबस ही गिर पड़ते हो निचे।


मैं पल भर के लिए रुक कर उन्हें देख भर लेती हूँ ,सृष्टि  जैसी सुंदरी और कोई नहीं ,हर मौसम नए रूप-रंग के साथ प्रस्तुत ,कहती हो मानवी तुम कितने भी प्रयत्न कर लो ,कितने भी सौंदर्य प्रसाधन लगा लो ,मुझसे ज्यादा नए रूप तुम क्या धर पाओगी ? मैंने तो तुम्हे भी मोह पाश में बांध के रखा हैं।  

मैं अपनी हार मौन स्वीकार कर आगे बढ़ जाती हूँ। वो फिर मुझे रोकती हैं , कहती हैं   एक पल तो ठहर जाओ जरा ,माना की तुम मेरे समक्ष कुछ भी नहीं ,पर हो तो मेरी ही सार्वभौम सत्ता का एक छोटा सा अंश ,बोलो रूकती क्यों नहीं ? 

मैं क्या कहूं ? एक उच्छ्वास लेकर आगे बढ़ लेती हूँ ,वो फिर रोकती हैं ,मैं दौड़ लगा लेती हूँ ,मन ही मन कहती हूँ ,मैं तुम जैसी भाग्यशालिनी नहीं ,तुम अपनी लय में बहती हो ,अपने समय से चलती हो ,पतझड़ आने पर रूठ भी लेती हो ,वसंत आने पर फिर मुस्कुरा देती हो। किंतु मैं  ! मेरी लय ये संसार नियत करता हैं ,मेरा रूठना -मानना सब समाज की इच्छा पर निर्भर करता हैं। तुम तो माटी-पानी में गंध बन बह लेती हो ,उसीको भोग बना जी लेती हो ,पर मैं मानवी ,मुझे रहने को ईंट पत्थरों का मकान लगता हैं ,खाने को दो समय का भोजन लगता हैं ,मेरा भोग माटी नहीं ,माटी से निकले ,मॉल में मिलते ,रेफ्रिजरेटर में सड़ते , पुरानी  पैकेजिंग पर नयी डेट चिपकाए ,कागज के कई सारे टुकड़ों को दे मिलने वाले भोज्य पदार्थ हैं ,मेरा घर लोगो के नज़रो में कोई संग्रहालय हैं ,जहाँ उनकी अपेक्षा की कई चीज़े होना अनिवार्य हैं,मुझे अगर वह चीज़े होना आवश्यक नहीं लगता तो यह मेरा सरफिरापन हैं। मेरे कर्म उन रूढ़ियों का आधार हैं जिन्हे समाज मेरे लिए कई हज़ार युगो से तय करता आ रहा हैं।  प्रिय प्रकृति मैं तुम जैसी बड़भागिनी नहीं ! 

मेरे मन का यह मौन आलाप -विलाप भी जैसे वह अंतर्ज्ञानी समझ लेती हैं ,मुझे कहती हैं रुको ,जरा एक  पल तो मेरे सानिध्य में बिता लो ,क्यों भागे जा रही हूँ।  मैं सोचती हूँ ,न जाने कबसे एक पल ठहरना  चाहती हूँ मैं ,न जाने कबसे तुमसे मिलना चाहती हूँ  ,न जाने कबसे तुम्हारे और स्वयं के साथ समय बिताना चाहती हूँ  ,न जाने कबसे खुद को महसूस करना चाहती हूँ मैं ,तुम्हारी ही तरह  स्वयं में ही मुखरित हो ,विश्व से मुखातिब होना चाहती हूँ मैं। 
पर क्या करूँ ?  ये एक पल बरसो में एक बार भी नहीं मिल पाता मुझे ! कभी -कभी लगता हैं कही दूर ,बहुत दूर भाग जाऊ ,जहाँ कोई मुझे न जाने ,मेरा नाम - धाम कुछ न जाने और वही कही जाकर खुदको भूलकर मैं फिर एक बार तुमसे और स्वयं से मिलु।  पर जीवन की आप -धापी ,कुछ कर्तव्य ,कुछ जिम्मेदारी ,कुछ लक्ष्य ,कोई उद्देश्य ,कुछ इच्छाएं ,कुछ आकांक्षाएं सब मिलकर समय ही नहीं देते। कभी कभी सोचती हूँ इन सबमे मैं कहाँ हूँ ?  शायद कही नहीं !

 मुझे चाहने वाले मेरी अच्छाई किसमें हैं और किसमें नहीं तय करते हैं ,वो मुझे कहते हैं दौड़ लगा , जा भाग , खींच वो सम्मान किसी और के खाते में गिर रहा हैं ,उसे उठा ,खींच कर अपने खाते में ले आ ,वो कहते हैं अरे भाग तेज़ भाग ,रुक मत , समय खत्म हुआ जा रहा हैं ,तेरी उम्र बढ़ती जा रही हैं, मृत्य की देवी तेरे करीब आ रही हैं ,रुक मत ,ठहर मत तेज़ भाग ,तेरे अकाउंट्स में पैसा भर डाल ,इतना भर -इतना भर की तेरे बच्चो के बच्चो के बच्चो को भी न कमाना पड़े !

 वो कहते हैं ,अरी तू क्या मूढ़मति सी शांत बैठी हैं ,इधर फ़ोन घुमा ,उधर चिट्ठी डाल ,चाहे तेरी कला का दम क्यों न घुट जाए तू बस परफॉर्म करती जा ,चाहे तू कुछ भी बजा ,कैसे भी बजा , सुर -बेसुर कुछ भी लगा ,पर दौड़ साल के दस -बारह रिकॉर्डिंग तो निकाल ,चाहे राग की हत्या हो ,चाहे स्वरों का कत्ल फर्क नहीं पड़ता बस तू भाग इस स्टेज से उस स्टेज चढ़ जा ,कार्यक्रम चाहे कितना भी घटिया क्यों न हो अपना प्रोफाइल बढ़ा। वो कहते हैं और मैं कुछ कदम भागती हूँ ,फिर जोर से चीत्कार करती हूँ ,मुझे नहीं भागना ,सम्मान -असम्मान मुझे कुछ भी नहीं चाहिए ,मुझे मेरे सुर चाहिये मुझे उनका और तेरा साथ चाहिए स्वयंकृति प्रकृति।  

मुझे अपना मानने वाले करते रहते हैं मेरे चलने -भागने की दिशाओं का निर्धारण ,मेरे कर्तव्यों का अनुमोदन।  

मेरा समय मेरा कब रहता हैं ? मेरे भावों को प्रकट होने का समय ही कब मिलता हैं ? लोग कहते हैं ,यह सामाजिक दृष्टि से उचित नहीं ,वह उचित हैं। वो कहते हैं बरसो से रुकी पड़ी हैं ,मैं कहती हूँ मैं रुकी ही नहीं , पर मेरी अपनी एक लय हैं ,एक बुद्धि ,एक धर्म ,एक इच्छा हैं। 

वो कहते हैं। तू मुर्ख हैं ? बता अकॉउंट में पैसा कितना हैं ,तेरे घर के बहार तेरी कितनी गाड़ियां हैं ,तेरी सोशल प्रोफाइल्स में तेरे फॉलोवर की संख्या कितनी हैं ? तेरे पास कितने की प्रॉपर्टी हैं ? तेरे बाल - बच्चो  का भविष्य क्या हैं ? तू बावली हैं ,तेरी उपयोगिता तेरी कमाई से हैं ,तेरी पास की हुई डिग्री से ,तुझे मिले हुए सरकारी -असरकारी प्रशस्ति पत्रों से , तूने सोशल मिडिया पर दिखाए तेरे कार्यक्रम की फोटो से हैं ,तूने बच्चो को दिलवाएं खिलौनों  से हैं ,उनके लिए बनाये असेस्ट्स से हैं ,तूने रिश्तेदारों को दिलवाये गिफ्टों से हैं ,इससे कोई फर्क नहीं पड़ता की तू क्या चाहती हैं ! कोई फर्क नहीं पड़ता की तू क्या बजाती - गाती हैं ,तू कैसे सिखाती हैं ,तू कैसे संस्कार देती हैं ,तू क्या सोचती हैं एक मनुष्य के  रूप में समाज और संसार को क्या और कितना देती हैं  !!!

मैं कहती हूँ उनका क्या करूँ जो कई सौ की संख्या में मेरी अलमारी में पड़ी कचरे सी सड रही हैं ,जिन्हे पाने -कमाने के लिए मैंने सालो गवाए ,वो डिग्रियां तो मुझे शांति नहीं देती ,डॉ ,गोल्डमेडिलिस्ट ,थेरपिस्ट ,सॉफ्टवेयर इंजीनियर ,मैडिटेशन गुरु और न जाने कितनी डिग्रियां , क्या हैं ये सिर्फ कागज के टुकड़े !!! और जो मिले पड़े हैं प्रशस्ति पत्र उनका  क्या ? क्षणिक आनंद और फिर अलमारी का जीवन भर का बोझ और वो जिन्हे कहते हैं सम्मान चिन्ह उनको मेन्टेन करके रखने में साल में एक बार हज़ारो रूपये खर्च हो जाते हैं और फिर इन्ही हज़ारो रुपयों को कमाने के लिए एक दौड़ लगानी पड़ती हैं। नहीं मैं विरुद्ध नहीं हूँ इन सबके पर  मैं एक मनुष्य हूँ ,कोई नाम ,कोई काम नहीं। संगीत -लेखन - समाज कार्य मेरा आनंद हैं ,धन मेरे उपभोग के लिए हैं ,धन प्राप्ति के लिए मैं नहीं। 

प्रिय प्रकृति मैं जब ह्रदय में आनंद के गीत गा बिन कारण हँसना खिलखिलाना चाहती हूँ यह संसार मुझे तब पागल कहता हैं ,मैं जब मंदिर की देहरी पर बैठकर घंटो बिताना चाहती हूँ तब मुझे ये बावरी ,विचित्र प्राणी कहता हैं ! मैं तुमसे पूछती हूँ तुलसी तुम भी तो हर मंदिर की देहरी पर बैठती हो ,तुम्हे क्यों पूजता हैं ये संसार ? क्यों नहीं कहता  बावरी ? क्योकि तुम प्रकृति का एक अभिन्न भाग हो ? मैं भी तो हूँ न प्रकृति का एक अहम् भाग ,मैं स्वयं भी तो प्रकृति ही हूँ न ,फिर मुझमे और तुममे यह द्वैत क्यों ,यह दोहरा न्याय क्यों ?

मेरा न्याय मनुष्य की अदालत तय करती हैं ,वह अदालत जो न्याय देने में जीवन को खींच लेती हैं ,प्राणों को शोष लेती हैं ,न्याय पाने तक कुछ श्वासे बचती हैं ,और काठ का खोखला शरीर जिसे न्याय - अन्याय से कोई लेना - देना शेष नहीं रहता। 

सखी प्रकृति मैं एक दीर्घ श्वास लेना चाहती हूँ ,जीवन का श्वास ,जीवन से परिपूर्ण श्वास ,तुझमे लिपटा मुक्त ,आनंदी श्वास। उस एक दीर्घ श्वास में स्वयं से मिलना चाहती हूँ ,सुना हैं की मृत्यु के समय हर इंसान एक मुक्त -दीर्घ श्वास लेता हैं ,पर मैं मृत्यु का इंतज़ार नहीं करना चाहती ,मरते समय दीर्घ श्वास ले खुदको पहचान फिर जन्म ले ,फिर भाग -भाग के फिर मृत्यु के समय दीर्घ श्वास लेने के इस चक्र्व्यू में नहीं फंसना चाहती। मैं मुक्ति का दीर्घ श्वास चाहती हूँ ,प्रकृति तेरी ही तरह जीवन चाहती हूँ ,तू भी रूकती नहीं कभी पर किसी मान - सम्मान के लिए नहीं खिलती, किसी लोभ स्वार्थ के लिए नहीं जीती ,किसी धन -धान के लिए नहीं भागती ,मैं मेरा कर्म करना चाहती हूँ ,मेरी गति से ,मेरे समय से। मैं घडी  की सुइयों की डोर की पुतली नहीं ,मेरे घर में घडी ही नहीं ! 

प्रिया प्रकृति ,तुझसे क्या छुपाऊं ? पर यहाँ सब मोह -माया हैं , हर कोई अपना स्वार्थ सिद्ध करना  चाहता हैं ,किसी को पैसा चाहिए ,किसीको तरक्की ,रोज के झगडे हैं। कोई पल भर रुकना नहीं चाहता ,कोई समझना नहीं चाहता ,जीवन असल में क्या हैं ? पाना क्या हैं ? किसकी खोज हैं ,बस सबको भागना हैं  तेज़ बहुत तेज़ दूसरे से तेज़ ,भाग के किसीको सामान इकट्ठा करना हैं किसी को सम्मान ,सब धोख़ा हैं ,सब झूठा मोह ,सब काली माया।  मैं इस काली माया में फ़सना नहीं चाहती ,नहीं किसी स्वार्थ की सिद्धि करना चाहती हूँ ,न किसी लोभ में जकड़ना चाहती हूँ। मैं मानवी हूँ ,प्रकृति का दूजा रूप ,प्रकृति देवी तुझ सी ही सरल ,सहज हो जीना चाहती हूँ ,तू पुष्पों को पाने के यत्न नहीं करती ,न पुष्प तेरा अंतिम उद्देश्य हैं ,न तुझे इस बात से कोई संबंध हैं की तेरे तुलसी ,औदुम्बर ,अश्वत्थ रुप को कोई पूजता हैं या नहीं ,नहीं फूलो की माला से लदी - फदी सुंदर कन्या का सौंदर्य गान तेरे जीवन का अंतिम उद्देश्य हैं ,तू तो  बस स्वयं के लिए ,अनजाने ही खिलती- सवरतीं ,बनती - सजती रहती हैं।  जो तेरे साथ आता हैं उन्हें जीवन देती हैं ,जो नहीं आता उनके पीछे तू नहीं दौड़ती।  

ठीक तेरी ही तरह मुझे जीना हैं ,तू ही मेरी गुरु और संगिनी हैं ,तेरी ही तरह मेरे सुरों में स्वयं को और तुझे भिगोना हैं ,तेरी ही तरह संसार के लिए कार्य करके स्वार्थी इच्छाओं से विलग रहना हैं ,सच कहूं  तो मुझे मृत्यु से पहले पल भर  ठहरना हैं , एक मुक्त दीर्घ श्वास लेना हैं ,और जीवन को जीना हैं ,सच्चे अर्थो में।

 शायद यही निष्काम कर्म हैं ,शायद यही योग हैं ,शायद यही कृष्ण हैं। 

बस इतना ही ......... 





Sunday, March 12, 2017

मन

आज फिर मन सपनो के रथ पर सवार दूर गगन की सैर करने चला हैं ,इस बार इस सुनहले रथ में कई सारे  घोड़े हैं ,कुछ सफ़ेद ,कुछ आसमानी रंग के,कुछ सूरज की किरणों से प्रकाशित हो ,सुनहले ,केसरी रंग के।
सरपट भागे जा रहे हैं ये घोड़े और सरपट भाग रहा हैं मेरा मन।

मन का भागना कुछ ऐसा ही होता हैं ,दायां -बायां ,आजु -बाजु कुछ दीखता ही नहीं।

आसपास जैसे सब कुछ धुंधला हैं ,बादल ही बादल ,पर मन बाँवरे को इस धुंधलेपन से मतलब ही क्या ,वो तो बस आगे देख रहा हैं ,सीधा -सामने ,न बाएं ,न दाएं।
आँखों के सामने कुछ अनोखी सी दुनियां हैं ,एक अनोखा प्रभात ,उगते सूर्य ने फैलाई रंग,बिरंगी रश्मियां। लगता हैं ये पूरी सृष्टि रंग खेल रही हैं ,नीले , पिले , हरे ,लाल ,गुलाबी स्वयं में मग्न मतवारे रंग और मैं इन रंगों के बीचोबीच ...  मैं ,रंगों से सराबोर।

सुना हैं आज होली हैं ,धरती पर लोग एक दूजे पर रंग फेंक रहे हैं ,अबीर -गुलाल की पिचकारियां भर -भर एक दूसरे पर रंग छिटक रहे हैं ,वहां वो रंग और यहाँ ये रंग।

मन जैसे धरती से करोडो योजन की दुरी पर पहुँच गया हैं ,कौनसा जग हैं ये ? जहाँ पैरो के निचे धरा ही नहीं ,पर फिर भी में सीधी खड़ी हूँ ,अपने पैरों पर। दूर -दूर तक सिर्फ रंग ही रंग हैं।  सप्तरंगों के बादल ,सप्तरंगों के गिरिवर ,पुष्प और पक्षी भी तो यहाँ सप्तरंगी हैं। यहाँ का जल न जाने किस पर्वत श्रृंखला से होकर धरणी पर गिरता हैं ,जल की बूंदो में रंगों के कोटि-कोटि रंगढंग और इन रंगों में पूरी तरह डूब मेरा अंतरंग।

देख पा रही हूँ रंगों के इस अनूठे विश्व में लाल रंग कुछ ज्यादा ही हैं। प्रेम का रंग , लाल रंग।  यही रंग कभी बरसाने में बिखरा था ,तब राधा ने अपने हाथो से इसे समेटा था , तब न तो बिरज की होरी थी ,न ब्रिज का वो राजकुमार। तब अकेली राधिका थी ,आसमंत ने धरती पर जो गिराया और पलाश के वृक्ष ने जिसे अपने पुष्पो में समेट लिया ,राधिका  ने उसी लाल रंग से , रात के अंधियारे में अपने हिय में बरसो से बैठी  प्रेम की मूर्ति को आकार दिया और गोकुल के उस ग्वाले को रच दिया , जिसे संसार ने परमपुरुष श्रीकृष्ण के रूप में जाना।

 राधा, कृष्ण से उम्र में बड़ी थी  और शायद वही कृष्ण की जननी थी। देवकी ने तो बस जन्म दिया ,यशोदा ने माटी के उस गोले को संभाल भर लिया। पर राधा  थी  कृष्ण की जननी ,उसीने उस मूरत को जीवन के रंगों का ज्ञान दिया , उस लाल माटी के गोले को प्रेम का ज्ञान दिया  और  जब वो लाल सूर्य  का गोला प्रेम और जीवन ज्ञान के रंगों से परिपूर्ण हुआ ,उसका रंग सम्पूर्ण गगन में बिखर गया ,प्रेम का लाल रंग अब परम ज्ञान का नीलवर्ण बन चूका था ,और वो लाल माटी  मूरत ,योगेश्वर ,परमेश्वर श्री कृष्ण। राधा ने कृष्ण को जन्म दिया ,उनको नीलवर्ण दिया ,और मेरे मन को कृष्ण नाम की सुध।

मेरे मन में जैसे कई रंगों के फव्वारे फुट रहे हैं ,हर रंग के साथ एक अनूठा आनंद ,ये आनंद  क्या हैं ? ये नंदनंदन क्या हैं ? मेरी आँखों में जैसे दिव्य शुभ्र रंग के सितारे चमक रहे हैं। मेरी आँखे और मेरा मन इस शरीर को छोड़ कर जा चूका हैं।  रंगों के इस संसार में अनंत पर मैं रंग-रंगीले चित्र बना रही हूँ , इन चित्रो में कई सारे स्वपन हैं ,नित्य -नूतन -निराले स्वप्न। मेरे पग थिरक रहे हैं ,संग मेरे थिरक रही हैं सम्पूर्ण सृष्टि।  कहींसे सुर सुनाई आ रहे हैं ,फागुन गीत के ,बसंत राग के ,कही से सुनाई दे रही हैं पखावज की गंभीर थाप। स्वर-लय -गीत और रंगों में मगन मेरा आत्मरंग।  सच कहते हैं लोग ,मैं इस दुनियाँ की हूँ ही नहीं , शरीर मात्र यहाँ हैं ,मन तो उस रंगीन सृष्टि का गोकुल ,वृन्दावन हैं। मैं बरसाने की राधा हूँ और वही कही आनंद रंग श्रीकृष्ण।


कृष्णार्पणमस्तु।।

होली की अनंत शुभकामनायें

©  डॉ.राधिका वीणा साधिका 

Tuesday, January 17, 2017

एक छोटी सी कहानी

           एक छोटी सी कहानी

उसने आँखे खोली और वो नदारत।
शायद था ही नही कभी वहां।

पर वो जानती थी वो वहां हैं। वो जिससे वह अभी-अभी बातें कर रही थी।

बातें क्या अपना मन परत दर परत खोल रही थी,कह रही थी " ऐसे नही जीना उसे,बाहरी तौर पर।"

"उसके लिए जीवन, यथार्थ ,भौतिक, दृश्य जगत नही,उसके लिए जीवन आत्मानंद हैं,उसके ह्रदय में प्रज्वलित जो अग्नि हैं उसका नाम जीवन हैं।"

कह रही थी " न जाने कबसे कहना था तुम्हें की तुम और कोई नही मेरा विश्वास हो।"

"विश्वास जिसका कोई नाम नही,धर्म नही,उम्र नही,जिसका कोई भौतिक रूप भी नही।
यही विश्वास उसने कभी मंदिर की मूर्ति में पाया था,आज जीवंत रूप में पाया हैं।"

कह रही थी," तुमसे कोई लोभ नही, तुमसे मोह हैं पर तुम मोह भी नही,तुम मुक्ति हो मेरे लिए ।"

इंसान जब पहली बार आँखे खोलता हैं तो महसूस होता हैं,जीवन कितना विकट हैं ।
आसपास भटकती, अपेक्षाओं के कवच से पूरी तरह लदी,जीवित शरीर ढोती मृतआत्माएं , मस्तिष्क की नसों ने एक क्षण में भेजे करोडों-अरबो संदेशो के जाल में उलझी, उस जाल को जीवन समझती, जर्जर मन से झीनी , सदैव अतृप्त आत्माएं ।

समाज की रीति,नीति,नियमो को स्वसंचालित पद्धति से कार्यान्वित करते अंदर ही अंदर खोखले देह। उन शरीरो के अंदर पैदा होती, मरती असंख्य मृर्गमारिचकाए। इन सब में मृतप्राय:आत्मन की गगनभेदी रुदन चीत्कारों में आनंदित होने का दिखावा करता जीवन।
सच जीवन कितना विकट हैं।
और इस विकटता को नष्ट करने का एक ही उपाय....विश्वास।

उसे उससे कुछ नही चाहिये था,कुछ पाने की अभिलाषा भी नही जागी शायद, जागती तो यह रिश्ता भी उसी भयंकर भौतिक- भ्रम , जग-जाल में फंस जाता और नष्ट हो जाता।

उसके लिए इतना ही काफी था की वो हैं।
वह उसकी माँ नही थी,बेटी नहीं थी, बहन, दोस्त नही थी, शायद कुछ भी नही थी,  और यह "कुछ भी नही" ही शायद सब कुछ था।

ईश्वर के मंदिर में याचनाओं की फेरहिस्त ले जाने वाले उस परमेश्वर को कहाँ पाते हैं !!
जो सच्चे दिल से जाते हैं, उसको मूरत को देखकर ,उससे मिलकर ही सब कुछ पा जाते हैं, ईश्वर के समक्ष उनका खड़े हो पाना ही सब पा जाना होता हैं।

इस रिश्ते का भी कुछ ऐसा ही था,उसका होना ही काफी था, " वह हैं , बस यही काफी हैं , बस यहीं सब कुछ था।"
उस रिश्ते का कोई नाम नही था,उस रिश्ते में कोई स्वार्थ नही था,कोई आशा,अभिलाषा,इच्छा कुछ भी नही।"
'जग के किसी कोने में वह रहता हैं, वह हैं, और मुझे याद कर लेता हैं ,इतना ही और बस इतना ही सब कुछ था।"

उसने फिर आँखे बंद की,कहने लगी "शायद युगों में पाया वह एकमात्र रिश्ता हो तुम ,जो हर बंधन - अभिलाषा , इच्छा से परे हो।माँ,बहन,सखी कुछ नही हूँ तुम्हारी, कुछ होने की इच्छा से परे मेरे लिए तुम्हारा होना हैं, तुम्हारे होने का विश्वास ही जीवन हैं।और यही बस हैं।"

अब भय नही था कि आँखे खोलते ही वह खो जायेगा,शायद सारे भय समाप्त हो गए थे।

उसने आँखे खोली ,देखा वह बैठा मैस्कुरा रहा था,सशरीर नही सआत्मन,वह अब उसके साथ था,ह्रदय में जीवन का विश्वास बन।

इस रिश्ते का कोई नाम नही था,रूप नही था। बस विश्वास था,संसार की भयंकरता में अच्छाई और सच्चाई होने का,किसी के होने का विश्वास।।

©डॉ. राधिका वीणा साधिका

Monday, January 2, 2017

Spirituality is the science of the self..
Dt.Radhika Veena Sadhika

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