www.blogvarta.com

Thursday, November 16, 2017

आज कितने बरस हुए उसे पुकार रही हूँ।न जाने किस घने अंधकार में खोया - सोया हैं।कई बार कोशिश की हाथ पकड़ कर लौटा ले आऊं।पर उसे मुझसे ज्यादा फ़िक्र हैं मेरे सम्मान की, बिन वज़ह बढ़ते मेरे अभिमान की ।
डरता हैं वो की अगर उसके साथ मुझे किसीने देख लिया तो समाज क्या कहेगा ? मेरे बारे में हर इंसान क्या सोचेगा !
उसे कई बार समझाया मैंने मुझे लोगो की चिंता नही।
खुश तो वह भी होता हैं मेरा साथ पाकर, पर जब भी खिलखिलाने लगती हूँ, उसकी नज़र पड़ती हैं समाज के किसी नायक - पुरोधा पर ,वो झट से छोड़ देता हैं हाथ मेरा और मैं सारी खुशी भूल बन जाती हूँ वो, जो बनाना चाहता है मुझे समाज !
कई सपने देखे थे हम दोनों ने साथ साथ !  पहुँच तो गयी सपनो के आंगन तक उसके बिना, पर एक भी सपना जी नही पायी जी भरकर....
वो दिन...जब हम साथ थे।
बादल, बरखा,चाँद -सितारें मुट्ठी में ले घूमते हम।आँखों की चमक कुछ यूं हुआ करती थी कि चाँदनियाँ भी शरमा जाएं, इतना हँसते - गाते -गुनगुनाते की देव - गंधर्व भी संगीत छोड़ हमारा प्रेम गीत सुनने आ जाते।
खुशियों की खरीद नही करनी पड़ी कभी हमें।
पत्थर-पानी-हवा-फूल सब हमारी ख़ुशियों के साथी बन जाते।
दो वक्त का आधा-अधूरा खाना, मैले -कुचैले कपड़ो का ओढ़ना,न कोई बयूटी प्रोडक्ट न कोई गाड़ी- कार। बस धूल माटी को चंदन बना चेहरे को सजा लेते,जहां जाना हो,दुखते- दर्द करते पैरों से दौड़ते पहुँच जाते।
कभी जरूरत ही नही लगती किसी कार की,किसी पार्लर की,सौंदर्य बढ़ाने के किसी सामान की !
तब बैंक बैलेंस नही था,नही कोई इन्वेस्टमेंट प्लान खरीदा था हमने,न ख़रीदा था करोड़ो का लाइफ इंश्योरेंस प्लान पर कभी डर नही लगा न जिंदगी जीने-खत्म होने का , न किसी ख़तरे से खेलने का।हम ख़तरों को खेलते नही थे शायद ! ख़तरा ही जीवन था हमारा ,पर कोई ख़तरा न हमारा जीवन छीन पाया न हमें डरा पाया।
वातानुकूलित यंत्रो से कोई वास्ता नही था हमारा। पैरों में चप्पल डाले बिन युहीं कड़कती धूप में चल देते हम दोनों, न सर पे छाता न ac वाली कार। न चेहरे की परतें ढांकता मख़मली सुंदर रुमाल।
मुझे तब भी था ज्वेलरी पहनने का शौक़ ,वो भी खरीद के लाता रोज़ रोज़ । सड़क के किनारे ज़मीन पर बैठी दादी ने बेची,उसने मेरे लिए तोहफ़े में लायी वो दो- पांच रुपये की कांच की हरी-नीली-पीली चुड़ी, कांच के टुकड़ों से सजे प्लास्टिक के कंगन और कर्णफूल । आज तनिष्क ,कल्याण ज्वेलर्स के अलंकार भी फ़िके लगते हैं मुझे!
हम कभी बड़े होटल्स में नही गए संग,हम खाते सायकिल पर सवार अंकल ने बेचा चूरण, खट्टी इमली,घर मे जरा से घी में बनी शक्कर रोटी ,पर हम दोनों का साथ ही कुछ ऐसा था कि वो शक्कर रोटी किसी केक या फाइव स्टार में मिलती स्वीट रवॉइली विथ लाछा रबड़ी से कई-कई ज्यादा स्वादिष्ट और मीठी लगती।
कभी कोई डाइट प्लान नही फॉलो किया हम दोनों ने न फिटनेस मन्त्रा जपा।बस दोनो यूँही निकल पड़ते सुबह से सैर पर।कभी भागा-भागी कभी पकड़ा-पकड़ी । अंत मे दोनो एक दूसरे से लिपट सो रहते घँटों ,अलार्म और समाज दोनों से बेफिक्र !

सच तुमसे दूर होकर बिल्कुल भी खुश नही हूँ , तुम्हें अपने अंदर जिंदा रखने की बहुत कोशिशें करके थक चुकी हूं।तुम्हारा साथ पाकर फिर जी उठूंगी और हाँ इस बार नही सुनूँगी एक भी बात तुम्हारी। मैं आ रही हूँ तुम्हें लौटा लाने ,अब मैं तुम फिर साथ होंगे।घर पर, ऑफ़िस में,लोगों के सामने ,समाज के सामने सर उठाकर साथ चलेंगे।
बहुत जी ली धीमी मौत तुम्हारे बिन मेरे साथी।
अब तुम और मैं सदा साथ होंगे मेरे "बचपन" ।
बचपन ......हाँ तुम , मेरे बचपन ...
 जिसको खोने के बाद सब पाकर खुदको खो दिया मैंने, सब कुछ पाया ,कितना जिया पर सब बेकार ही जिया मैंने।
आज बच्चो का दिवस हैं, और मुझे याद आ रहा हैं आकाशवाणी में हम दोनों ने  सफ़ेद फ्रॉक पहन गुलाब लगा कार्यक्रम में गाया एक गीत " फूल गुलाबों के मुस्काये नेहरू चाचा तुम याद आये"।
उन गुलाबों की कसम ,चाचा की कसम अब जिऊंगी तो बस तुम्हारे संग मेरे बचपन।

*जो मेरी तरह बचपन को मिस कर रहे हैं और जो फिर से एक बार बचपन के साथ जीना चाहते हैं,उन्हें बच्चों के दिन की शुभकामनाएं*😊
© राधिका वीणासाधिका

*कुछ पोस्ट्स में ये कॉपीराइट लगाना भी बचपने को नागवार सा लगता हैं😊
"आरोही" की नयी पोस्ट पाए अपने ईमेल पर please Enter your email address

Delivered by FeedBurner