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Monday, March 2, 2020

न अंत न आरंभ



कहानी कभी ख़त्म नहीं होती ,हम सोचते हैं की जीवन के शुरू होते ही कहानी शुरू और जीवन के ख़त्म होते ही  कहानी ख़त्म ! दरअसल जीवन तो कभी शुरू होता ही नहीं और नहीं होता हैं कभी ख़त्म।  वो तो बस रूप बदल - बदल कर अपनी कहानी पूरी करने की कोशिश करता रहता हैं।  एक ऐसी कहानी जिसका न कोई प्रारंभ हैं न कोई अंत ,एक ऐसी कहानी जिसे वह स्वयं अपने लिए लिखता हैं , जिसमें काम करने वाले सारे कलाकारों को वह खुद चुनता हैं ,जिसमें होने वाली हर घटना को वह स्वयं घटित करवाता हैं।  वह सोचता हैं हर बार कि इस बार कहानी पूरी कर ही लूंगा ,पर कहानी का बस नाम -गांव -चेहरा बदल जाता हैं। पुराने कलाकार भेष बदल फिर आजाते हैं , पुरानी घटनाओं की पुनरावृत्ती फिर होने लगती हैं। वही पुरानी दोस्ती ,वही पुराना प्यार ,वही नफरत ,वही शत्रु भाव ,वही लालसाऐ  ,वही कामनायें। मन बस भरा - भरा सा रहता हैं , कभी ख़ुशी के भावों से ,कभी दुःख के रागों से। समुंदर में ऊँची उठती लहरों की तरह हमारी मन और मस्तिष्क में उठती विचारों और वासनाओं की तरंगे  झूम -झूम कर ऊँची उठती जाती हैं और हमें हर बार उन्ही किनारों पर लाकर पटक देती हैं जहाँ से शुरू किया था , जहाँ से कहीं और निकल जाना था।  इस जीवन से मुक्ति तो कहीं हैं ही नहीं ,इस कहानी की संपुष्टि तो कही हैं ही नहीं।  सागर के तल पर उगती - पनपती अनेकानेक बेलों की तरह जीवन की इस कहानी में कितनी -कितनी सारी बातें - मुलाकाते ,किस्से - संवेदनाएं एक दूसरे में गुथ्थमगुत्था हो जाती हैं। बिलकुल वैसे ही जैसे हमारे मस्तिष्क की नसे एक दूसरे में उलझी -उलझी सी फैली जाती हैं।  हम चाहे कितने भी हिसाब -किताब लगा ले ,कितने भी जोड़ -घटा -गुणा -भाग करले ,हम कभी पूरा का पूरा हिसाब चुकता कर ही नहीं सकते ,कुछ लेन -देन तो फिर भी बाकी रह जाता हैं।  हर बार कोई रिश्ता कोई नाता कहीं छूट जाता हैं जिसका कुछ देना या लेना बाकी हो ,जिसका कुछ छोड़ना और पाना बाकी हो।
जन्म लेते समय हम तय करके आते हैं इस रिश्ते को पूरा कर जाएंगे ,उस रिश्ते को निभा जाएंगे। प्यार की कोई कसक हमें बांधे रखती हैं ,जोड़े रखती हैं हर उस रिश्ते से जिसे हमने पूरी शिद्द्त से निभाना चाहा था ,जिसके लिए पूरा मिट जाना चाहा था तब भी जब हम जन्म की परिधि से ऊपर किसी अंतराल में चेतना रूपी एक कण बन ठहरे होते हैं ,सही समय के इंतज़ार में।
 ह्रदय में अगर मधु का प्राशन करने की इच्छा हो तो समय आते ही हम मधुमाखी बन जन्म लेते हैं ,अगर मिठास के संग सुंदर रंगो से भी प्रेम हो तो तितली बन प्रकट होते हैं ,कभी इच्छा रही हो फुर्र्र से उड़ जाने की तो नन्ही सी चिड़ियाँ और किसी के पंख काटने से प्रेम हो तो कोई शिकारी। अगर मन में हो शांत भावनाएं , सेवा की इच्छाएं तो वृक्ष ,  और सुगंध बन बहने की इच्छा हो तो हम हो जाते हैं पवन। तेज बन प्रखर होने में आस्था हो तो हम ही बनते हैं सूर्य किरण और जब तम में बिता दे सारा जीवन तो बन जाते हैं ,भय ,दुःख ,कष्ट ,महामारी और निकृष्ट जीव।
जब प्रेम हो युगों - युगों से ह्रदय में तो हम ही लेते हैं सैकड़ों -हज़ारों -लाखों -अरबों जन्म ,जब तक उस प्रेम को न करले पूर्ण।  हम ही बनते हैं  खेचर,जलचर , भूचर ,हम ही होते हैं जो बनके मनुष्य अहंकार में देते हैं सब बिसर।
पर जीवन कभी नहीं होता ख़त्म ,हम जन्मों-जन्म भटकते रहते हैं ,इस देश से उस देश ,इस रूप से उस रूप ,इस राह से उस राह ,इस भाव से उस भाव पर शांति -संतुष्टि -कथा की इति कही भी नहीं मिलती।

हाँ इतना कर सकते हैं कि हर नाते हर रिश्ते ,हर चाह को एक मुकाम तक पहुँचा दिया जाए ,ताकि अगली बार वो कभी मिले तो सहायक बनकर ,मुस्कुरा कर मुक्त कर देने के भाव को बतला कर , साथ देकर ,बाँधने के बाद भी स्वतंत्र होकर ,स्वतंत्रता देकर। 

कोई भी आस बाकी हो तो आज अभी ही पूरा कर ले , वरना यही डोर पकड़ के जकड लेगी और फिर कहानी को आपसे बार -बार लिखवाएगी।

कभी देखा हैं देवी को जल के ऊपर कमल पर बैठ वीणा के सुरों संग गुनगुनाते हुए ,कलम हाथ में पकड़ मंद -मंद मुस्काते हुए ? देखा हैं न ? उन्होंने भी अपनी कथा लिखी हैं ,उन्होंने भी कहानी लिखी हैं ,वो भी कहानी ही जी रही हैं ,पर जरा अलग निति से ,थोड़ी हटके रीती से।  उनकी कहानी में भवसागर में उठती भाव - विभाव -आभाव की तरंगे उन्हें उठा के गीरा नहीं सकती ,उनकी कहानी में उन्हें किसी किनारे की आवश्यकता और खोज ही नहीं ,उनकी कथा में दुःख -दर्द ,व्यथा की मौजे कमल के पात से कुछ यूँ झर जाती हैं की उनकों छू भी नही सकती , वह भावनाओं की लताओं पर झूला नहीं झूलती ,नाही उन उलझी -लिपटी लताओं में खुद के अस्तित्व को कही खोतीं हैं , जलधि के हिलकोरे उनके दृढ़ वयक्तित्व को बित्ता भर भी हिला नहीं सकते ,वह भव से ऊपर हैं , भवभंजन ,भावातीत ,भवानी । हम सब गिरे पड़े हैं उस सागर में डोल रहे हैं , हिचकोलें खा रहे हैं वही जन्म ले ,वही मरे जा रहे हैं ,लिख रहे हैं पर न लिख पा रहे हैं ,न लेखन संपन्न कर पा रहे हैं। हम डूबे जा रहे हैं ,अश्रुओं से भीग -भीग मचलते जा रहे हैं , लिखना कुछ चाह रहे हैं ,लिखे कुछ और जा रहे हैं। देवी की कहानी शांति ,पूर्णता ,वैभव से परिपूर्ण मुक्ति का गीत हैं ,और हमारी अशक्ति ,अशांति , अभाव की प्रीत। सब लेखक का स्वभाव हैं ,कहानी यूँ ही लिखी जाती रहेगी ,आज इधर ,कल उधर अपनी -अपनी बोली में कही जाती रहेगी , क्षण -क्षण में रूप बदल के मंचन की जाती रहेगी। क्योंकि   इस कहानी का न कोई अंत हैं न आरंभ ,सिर्फ दो आयाम हैं एक जिसे हम लिखते और जीते हैं दूजा वह जो शारदा लिखती और जीती हैं।

अपूर्ण .....

©राधिका आनंदिनी (डॉ. राधिका वीणा साधिका )





Friday, February 28, 2020

विश्वास




आज एक अरसे बाद बंजर जमीं पर बारिश के पानी की बूंद गिरी ,रेगिस्तान बन रही धरती को महसूस हुआ उसका तन अब भी माटी ही हैं ,कोमल ,नरम , महकती माटी। ऊपर का आवरण जड हो गया हो भले ही ; अंदर की कोमलता जस की तस हैं। इस अनुभूति ने उसे फिर से जगाया ,प्रेम नाम की एक कोपल माटी के अंतर में गहरे छुपे बैठी थी , अचानक ही फुट बहार आयी, आकाश  के नैनों से ढलते जादू ने धरती के ह्रदय में एक मोती अंकुरित किया और प्यार की एक नाजुक सी कोपल बहार आयी , बहार आते ही उसने धुप को देखा ,उस धुप ने उसे रौशनी से नहलाया ,उसकी आशा भरी चमकीली आँखों में एक सपना फिर से जगाया ,धरती के ह्रदय से एक टीस सी उभरी ,इसी सपने को ,इसी कोपल को न जाने कब से अपने अंदर दबाये बैठी थी ,खिलने नहीं देना चाहती थी ,खुद से छुपा लेना चाहती थी ,डरती थी यह कोपल कही पौधे का , फिर वृक्ष का रूप न ले ले।  धरा को हमेशा से डर लगता रहा हैं इस कोपल के खिलने से ,न जाने कितनी सदियों से यह कोपल मन को तीव्र वेदनाएँ दे रही हैं , कितना भी दबा के रखो ,छुपा लो,मुंह बंद करके रखो दर्द के रूप में बाहर आ ही जाती हैं। धारणी को भी नहीं पता कितने जन्मों नए -नए देशो,नए - नए रूपों को धर उसने इस कोपल को जन्म दिया हैं और हर बार कोपल की संवेदनाएं धरती के लिए मृत्यु का रूप बन सामने आयी हैं।  अभी -अभी ही तो धरती फिर स्थिर हो पायी हैं और न जाने कबसे मुँहजोरी करती ,हर श्वास के साथ बाहर आने को उद्युत यह कोपल आज पुनः बाहर आ गयी हैं।
पता नहीं क्यों पर लगता हैं इस बार इस कोपल का यूँ निकल आना सही हैं ,इस बार उसने चुना स्थान भी सही हैं और मौसम भी । धरणी को अब भी डर हैं अगर अंबर ने साथ न दिया और कोपल बिन पानी धुप के किसी जंगली वृक्ष की तरह बढ़ती ही गयी तो इस बार धरती का अंत सुनिश्चित हैं ,सोच रही हैं खिलने से पहले ही इसे वापस अंदर दबोच ले ,अगर बाहर आना चाहे तो किसी माँ की तरह मौसम का अंदाज़ लगाते हुए किश्तों में बाहर  आने दे। कोपल का यह अचानक खिल के बाहर आना और बेलगाम बढ़ते जाना न उसके लिए सही हैं न धरती के लिए। 
फिर भी अपनी माटी को गीला पाकर  धरा प्रसन्न हैं ,खिल उठी हैं ,खुशबु बन बिखर रही हैं ,न जाने क्यों संवर रही हैं ,इस बार उसे भरोसा हैं की उसका अंतर और वृहतअंतर सारे अंतर ख़त्म कर अनंत हो जायेंगे ,एक हो जायेंगे। न जाने किस बात का विश्वास हैं ,किस पर विश्वास हैं ,स्वयं पर , निलगगन पर नन्ही सी खिली उस सुंदर नवजात कोपल पर  या ह्रदय  में छुपे सत्य पर? 

ह्रदय कहता हैं यह कथा की शुरुवात हैं अंत नहीं ,यह नवोन्मलित प्रेम की अनुहार नहीं युगों से मिलनातुर प्रेम की मनुहार हैं ,यह क्षण भर की परिकल्पना नहीं अनेकानेक जन्मों से संग चली आनंद की संकल्पना और जीवन का सत्य हैं ,इस बार कोपल का खिलना , आसमान   का झुकना और धरती का गगन का मिलन हो पाना सब सत्य हैं ,व्योम की आँखों से गिरी एक बूंद का छोटी सी धार में परिवर्तित हो नदी बन अपने सत्य की और दौड़ जाना और सागर रूपी उस सत्य में विलय पाना ,कोपल का वृक्ष बन धरती के अंत तक खिलखिलाके लहलाहना सत्य हैं ,इस बार  प्रेम पुनर्जन्म और जीवन सत्य हैं। इस बार कोपल का जन्म सत्य हैं। 

©️ राधिका वीणासाधिका (राधिका आनंदिनी)

Wednesday, February 26, 2020

निःशब्द


एक ख़ामोशी सी हैं ,एक शून्य। जिंदगी जैसे सरपट दौड़ रही हैं और मैं उसे दौड़ते हुए बस देखे जा रही हूँ , दिमाग के आसपास न जाने कितने लोग ,कितनी घटनाएं ,कितने महीने चक्कर काट रहे हैं ,खासा शोरगुल हैं , सब तरफ हल्ला ही हल्ला।  इस शोर से उपजा डर , शोर में दबी सिसकियाँ , धूल के रैलो की तरह उठते नए -पुराने विचार ,हंगामा ही हंगामा। पर दिमाग सुन्न हैं और ह्रदय शून्य ! क्या कहते हैं इस अवस्था को जीवन ?

 ना यह जीवन तो नहीं ,जीवन तो नाजुक ,हौले -हौले गुनगुनाती उमंगो का नाम हैं ,जीवन तो चंदन के वृक्ष से लिपटी भीनीं -भीनी सुगंध हैं जो प्यार बन अंग - अंग भीन जाती हैं। जीवन तो चांदनी में मुस्कुराती किसी मदहोश हंसी का नाम हैं , तो कभी चाँद का गीत  सुना बालमन लुभाती लोरी का। जीवन तो सुबह -सुबह शुद्ध देसी घी में तली जाती कचोरी और रस से भरी मीठी जलेबी पर नज़र फेर लपलपाती जिव्हा का नाम हैं।  जीवन तो होली में काले -पीले रंगो से सज ठाट से मटकने का नाम हैं , जीवन तो माटी से बने रास्तों पर धमाधम चलते हुए ,कीचड़ में सने पैरो से गांव के घर बाजरे की रोटी का स्वाद लेने पहुँचने का नाम हैं। जीवन तो नाम हैं सुरो का जो पुरे अंतर में बिखर कर ओमकार बन जाते हैं। जीवन नाम हैं श्रद्धा से प्रज्वलित किये एक दीपक का ,जीवन नाम हैं उस प्रसाद का जिसे पाने घंटो कतार में खड़े रहने की तैयारी हो।  जीवन, नाम हैं पूर्व में उदित होते सूरज को लोटा भर जल चढ़ाते हुए किसी के सर पर उस जल को निछावर करके बिन वजह के महाभारत में खुद ही सेनापति बन जाने का। जीवन नाम हैं ढोल-धमाके में किसी और की शादी में नाचते हुए ,लड्डू -गुलाबजामुन से मुंह भर लेने का। जीवन नाम हैं, किसी संगी का हाथ पकड़ पानीपुरी की जलन को हँसते हुए सह जाने का। जीवन नाम हैं बिन सोचे - समझे,  बिन जाने -बुझे किसी के साथ किसी और देश पहुंच जाने का ,सपने सजाने का।  जीवन नाम हैं समुंदर की लहरों पर सवार हो मन ही मन पिय के घर पहुँच जाने का। जीवन नाम हैं अपनों से हठ धरने ,मनाये जाने ,मान कर भी ना मानने  और फिर सामने वाले के रूठ जाने पर उसकी नादानी पर जी खोलके हॅसने का। जीवन नाम हैं प्यार से किसीको जी भर सताने ,चिढ़ाने -रुलाने का और फिर उसके आंसू पोछने के लिए अपने ही हाथ आगे बढ़ा मुस्काने और उसे अंक में भर लेने का।  जीवन नाम हैं उस विश्वास का जो ऊँगली थाम चलना सीखा था  ,आंख्ने मूंदे किसी गोद में जा छुपा था  कि यही सारा विश्व हैं , बस यही मेरा अस्तित्व हैं। उस अस्तित्व को ,उस प्रेम को ,उस वात्सल्य को रोज़ -रोज़ ,बार -बार पाने का। जीवन नाम हैं सधी हुई सी ,धीमी सी ,हलकी सी जलन देती स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का ,जो औरों की तरक्की पर खुश तो होती हैं लेकिन अपने लिए मान कमाने में पीछे नहीं हटती। जीवन नाम हैं  नन्ही सी आवाज को ,भूख से बिलखते नन्हे से प्राण को बाँहों में उठा कुछ अलग ही आवाज और सुर में चुप कराने की नाकाम कोशिश का। जीवन नाम हैं जी भर के श्वास लेने का ,आनंद से भर -भर जीने का ,खुल कर खिलखिलाने का , रोने का ,हॅसने का और किसी को पा जाने का।  जीवन नाम हैं प्रेम का ,जीवन नाम हैं कंगनों से बंधे हुए बंधन का ,जीवन नाम हैं मृत्यु तक कुछ न कुछ पाने की चाह में रोज नया कुछ सिखने का ,करने का। जीवन नाम हैं जीवन पर प्रेम करने का ,किसी के साथ का ,जन्मो-जन्म  के रुचिकर खेल का।



पर मस्तिष्क सुन्न और ह्रदय शून्य होने की यह अवस्था जीवन तो नहीं ,जीवन का मात्र भ्र्म हैं  और भ्र्म अवास्तव्य  हैं।  मैं , हिंसक -अविचारी -भ्रमिष्ट ,  मशीनों से काम करते हुए इन शरीरों के बीच  एक जीवन ढूंढ रही हूँ। मेरे अंतस में बसा किसी बाल गोपाल की तरह सादा- सरल जीवन ,मेरे जैसा ,मेरा और मेरे लिए बना मेरा अपना कोई जीवन। जिसके साथ मैं एक बार पुनर्जीवित हो सकू और जीवन जी सकू।

शेष .....

©डॉ.राधिका वीणा साधिका (राधिका आनन्दिनी )



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