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Tuesday, June 7, 2016

प्रेम




बरसो बाद मैंने उसे देखा आज ,वो जिसके साथ मैं पली बढ़ी ,जिसे देखते ही मेरे पिताजी की भौहें तन जाती और माँ के  ह्रदय की धड़कने बढ़ जाती ।  न जाने कौन गली से छुपते - छुपाते वो रोज हमारे घर आ जाता ,और उसके आते ही शुरू हो जाता उसे किसी तरह भगाने का उपक्रम । मुझे उससे प्रेम न था ,पर मैं रोज उसके नित नए रंग देखती ,उसके चलने का ढंग ,संगीत की लय पर उसके डोलने का ढंग।  वह लोगो की नज़र में ईश्वर का रूप था ,पर उसका इस तरह घर आना किसी को न सुहाता। उसका डील - डोल  ही कुछ ऐसा था की लोग उससे डर जाते। वह राजा था क्योकि उसकी मान - मनुहार कर उससे बहुत कुछ पाया  जा सकता था। पर उसके घर आते ही उसे डंडे मारके भगाया जाता।

 कितनी स्वार्थी होती हैं न ये दुनिया ! और कितनी विचित्र !!!

आज रास्ते में वह मिला ,बरसो बाद , वही चमचमाता सावला रंग , वही लचीली - शाही चाल , वही शानोशौकत।
पर यह रास्ता मेरे घर का न था।  यह रास्ता था जहाँ पर बड़ी - बड़ी बिल्डिंगस के बीचो - बिच कुछ बस्ती वाले रहते थे। 
मैंने उसे देखा , जी में आया पास लेके प्यार करू ,पर साथ मैं मेरी बेटी थी जो औरो की तरह डरी  हुई थी।  मैं जितना उस मनलुभावन के पास जाती मेरी बेटी मुझे पीछे खिचती।  मैं उसे देखती रही जी भर के ,वह मुस्कुराता रहा।  मेरे मन में विचार आया , क्या इसे आज दिन भर से कुछ खाने को मिला हैं ? भूखा होगा ये और मैं इसे दे भी क्या सकती हूँ। मेरे इस विचार पर मेरा मन जोर से हँसा।  उसने कहाँ बावरी यही प्रेम हैं। मैंने स्वयं से प्रश्न किया मैं इसे भी प्रेम करती हूँ ?? प्रेम ! हां प्रेम !

मेरी बेटी जोर से चीखी माँ सांप हैं वो काट लेगा दूर हट। मेरी तन्द्रा टूटी ,हां वह सांप ही था ,एक छोटा सा नन्हा सांप ,शायद कल का काला नाग। जिससे मुझे कभी डर नहीं लगा वरन जिस पर मुझे प्रेम ही रहा।  

प्रेम जिसे  मैंने अब जाना। 

मुझे लोग बावरा कहते ,बावरा तो बहुत छोटा शब्द होगा , सच कहूं तो मुझे लोग पागल कहते।  पूरी पागल।  क्योंकि मुझे प्रेम हो जाता हर किसी से  . मैं डाल पर लहराते हरे पत्तो से बातें करती ,आसमान से अपने दिल की कहानी कहती ,बादलों पर बैठ कर पीय  के घर जाती। हर तारे के संग नित - नव स्वपन सजाती।  मुझे प्रेम था चंपा ,जूही ,मोगरा के उन फूलों से जिन्हे मैं बागीचे से चुरा -चुरा  घर में सजाती। 

प्रेम था मुझे मेरे प्रेम से ,उन सुरों से जिनके संग बहते - बहते मैं   शिव-लोक पहुँच जाती ,उन स्वर लहरियों से जिन पर डोलती मैं यौवन पर इठलाती।  प्रेम था मुझे मेरी सितार से ,वीणा से ,रागो की रानी माँ शारदा से । 

मैं जब उसके घर से देर तक न लौटती ,मुझे याद हैं मेरे पिताजी क्रोध से लाल -पिले हो जाते और आने वाले कुछ  दिनों तक मेरा घर से निकलना बंद हो जाता। जिसे सारा संसार प्रेम करता हो उसे प्रेम करना भी मेरा अपराध था। पर मेरा मन उसके नाम की धुनि रमाएँ किसी नन्ही बालिका  सा दौड़ उसके समीप पहुँच जाता ,मेरा यह प्रेम न वृक्ष था न कोई जीव ,यह वह पुरुष था जिसके सामान न कोई हुआ न होगा। वह पुरुष जिसके नाम पर एक राजकन्या ने अपना पूर्ण जीवन होम कर दिया  ,जिसके साथ के लिए न जाने कितनी कन्याओं ने संसार भर को ठुकरा दिया ,जिसके प्रेम को पाने के लिए एक राजकुमारी ने अपना घर तक छोड़ दिया। जिसके लिए एक राज रानी ने यह तक कह दिया था की पुरुष तो केवल मेरा नाथ हैं बाकि तो सब यहाँ स्त्रियाँ ही हैं। वह पुरुष जिसे संसार ने पुरुषोत्तम कहा और मेरे मन ने ...... मेरा मन तो उसके नाम की माला जपने में कुछ इस तरह खो गया की मुझे यह तक न पता चला की सालों बीत चुके हैं ,मैं एक बेटी से एक बेटी की माँ बन चुकी हूँ पर न मेरा प्रेम बदला , न प्रेमी। बरसो से रची आस्था की मेहंदी गढ़ कर कुछ यु लाल हुई की मेरे रक्त के कण - कण में बस एक नाम बहने लगा ,श्रीकृष्ण ! श्रीकृष्ण ! श्रीकृष्ण ! 

समय बढ़ता गया ,उस पर मेरा विश्वास भी ,वह मुझे कभी मंदिर में मिलता तो कभी मेरे मन में। मैं भूल गयी थी की ये संसार हैं जिसका सार सिर्फ जीवन जीना  और पाना और बस पाते रहना हैं। 

मैंने देखा प्रेम के नाम पर लोगो को स्वार्थ की पराकाष्ठाएं लांघते हुए,स्वार्थ साधते हुए ,झूठ बोलते ,फ़साते ,रुलाते ,मारते -मरते ,दर्द से तड़पते हुए। मेरे मन ने प्रश्न किया , क्या ये प्रेम हैं ? वह प्रेम जो बस पाना चाहता हैं बस पाना। जिसे देने मैं विश्वास नहीं हैं। मैंने देना सीखा  और संसार ने फिर मेरी आस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाते मुझे मुर्ख  सिद्ध कर दिया। प्रेम जो मेरी आत्मा का विषय था ,किसी और के लिए शरीर की आसक्ति ,प्रेम जो मेरे लिए भक्ति का विषय था औरो के लिए स्वलाभ  की पूर्ति , प्रेम जो मेरे लिए जन्म -जन्म की संगती था किसी के लिए पल भर की अनुरक्ति ,प्रेम जो मेरे लिए शक्ति था औरो के लिए अहंकार की तृप्ति।  मैंने देखा प्रेम के नाम पर युवक युवतियों को मनमानी करते हुए ,सड़कों ,होटलों ,घरों में विचित्र अतिहीन  कृतियाँ करते हुए और उसे प्रेम कहते हुए। मैंने देखा प्रेम के नाम पर अनेक लोगो  को स्वार्थ के सर्पदंश करते और झेलते हुए। नीच कर्म कर उन्हें सत्य -तार्किक और उचित कहते हुए। 

कहते हैं  प्रेम करने वालो को वह किसी न किसी रूप में मिलता जरूर हैं ,मेरे बावरे प्रेम ने कृष्ण को जग भर में ढूंढा ,कभी किसी मित्र में ,प्रेयस में ,माताओ -भगिनियों -सखियों में ,पर मुझे श्रीकृष्ण कही न मिला।  

वह जब भी मिलता मंदिर में मिलता मेरे मन में मिलता और मेरे इस बाँवरे प्रेम पर जी भर के हँसता ,मेरी आत्मा आक्रांत कृंदन करती और वह मेरी इस दशा पर हँस के कहता ,राधिके मैं अब संसार में नहीं हूँ केवल तुम्हारे मन में हूँ। मुझे ढूँढना बंद करो ,मैं न मिलूंगा। मैं क्रोध से झुलस सी जाती पूछती मेरा क्या दोष तुम्हारी राजरानी लक्ष्मी का सा रूप मेरा ,मेरी वीणा में तुम्हारी बंसरी के स्वर ,मेरे नैनो में तुम्हारे दरस की आशा ,मेरे ह्रदय में तुम्हारे प्रेम की पिपासा।
 वह कहता राजरानी तुम कलजुग में पधारी हो ,यहाँ मेरा शासन नहीं सिर्फ स्वार्थ -अहंकार -लोभ का साम्राज्य हैं।  
मैं प्रतितर्क करती ,मुझे बनाने वाले भी तुम रचाने वाले भी तुम और मेरे ह्रदय को प्रेम से भरने वाले भी तुम। मेरा संबंध किसी जुग से नहीं केवल तुमसे हैं। 

एक दिवस तर्क और उत्तर के रोज के झंझटों से वह थक गया और उसने वह आशीष दे ही दिया जिसका मुझे सदीयों से इंतज़ार था ,उसने कहा " मैं तुम्हे एक दिन अवश्य मिलूंगा। पर किस रूप में अभी कह न सकूंगा। "

तबसे यह राधिका उसके आने की सुध में सबसे प्रेम किये जा रही हैं ,कभी किसी पाखी से ,लता  से ,नदियां से ,सागर से ,मोती से ,दरिया से ,बादल से ,पानी से ,आंधी से ,सावन से ,भादो से ,पूनम से ,बरखा से ,बिजुरी से ,फूलों से ,पत्तो से ,राग -ताल आलापों से ,किसी नन्हे बालक में उसे ढूंढती  यह बावरी उसे कभी किन्ही नैनो में उसे खोजती हैं ,किन्ही शब्दों में ,गीतों में ,अनुभवों में ,अगले पिछले जन्म में बस ये उसे खोज ही रही हैं और मार्ग में आती हर वस्तु - स्थिति - व्यक्ति से प्रेम किये जा रही हैं ।
 जानती नहीं की उसे पाएगी या नहीं ,पर  कुछ हैं जो इसने जाना हैं। और वह हैं प्रेम ! सिमा रहित ,स्वार्थ रहित ,नाम रहित ,स्वयं को भूल कर किया जाने वाला प्रेम।  
आज राधिका सिर्फ श्याम से नहीं उसकी निर्मित हर वस्तु से ,वयक्ति से ,सारे संसार से प्रेम करती हैं वह भी सिर्फ और सिर्फ कृष्ण मिलन की आस लिए ,उसका यह प्रेम उन तमाम कहे -सुने प्रेमो से श्रेष्ठ हैं जो स्वलाभ के लिए प्रेम जैसे पवित्र शब्द का ,संस्कारों का ,सद्विचारों का संहार करते हैं। उसका यह प्रेम सच्चे अर्थो में प्रेम हैं ,और उसने कही सुना हैं प्रेम श्रेष्ठ हैं क्योकि प्रेम ही ईश्वर हैं ,और इस राधिका के लिए ईश्वर श्रीकृष्ण।  

प्रेम ही कृष्ण हैं और कृष्ण मात्र प्रेम ........ 






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