पिछले दिनों पंचगनी और महाबलेश्वर जाना हुआ,हमारे शहर से तक़रीबन १७-१८ घंटे का सफर तय करके हम वहां पहुँचे । एक तो पंचगनी में ट्रेन जाती नही और मुझे बस भाती नही ,बस देखकर ही मुझे गुस्सा आने लगता हैं ,पर फ़िर भी एसी बस में भगवान का नाम लेते हुए ,आरोही को पतिदेव को सँभालने देकर, आखें मूंद कर; सोते सोते किसी तरह सफर पुरा किया । इतने लंबे सफर के बाद लग रहा था की कहाँ से यहाँ आ गये इतनी दूर .लेकिन बस से उतरते ही जब मैंने पंचगनी का प्राकृतिक सौंदर्य देखा तो सारी थकान उतर गयी ,तीन दिन कब खत्म हो गए पता ही नही चला , दूर दूर तक फैले पहाड़ ,उन पहाडो पर बिछी वृक्षो - पौधों की हरी चादर ,कहीं कहीं पीले रंग के फूलो से ढकी पर्वत श्रृंखलाऐ ,सुंदर वादियाँ,सुनहली धुप ,कभी हल्की छाव,ठंडी हवा ,कभी पंछियों का कलरव , कल कल ,छल छल बहते झरने ,यह सब स्वपन सा सुंदर ।
हमें नही पता था की हमारी कल्पना से अधिक नैसर्गिक सौंदर्य हमें महाबलेश्वर में देखने को मिलेगा,महाबलेश्वर पर मानो शिव और शिवा की विशेष कृपा हैं ,वहाँ की नैसर्गिक सुन्दरता का वर्णन करने के लिए मेरे पास शब्द नही हैं , मुझे नही लगता की कोई कविता,कोई आलेख ,कोई चित्र उस प्राकृतिक सुंदरता का सही- सही और पुरा वर्णन कर पायेगा/पायेगी , प्रकृति के उस सुंदर रूप को मैंने अपनी आखों में बसा लिया हैं।
कहते हैं माँ सिर्फ़ वही नही होती जो जन्म देती हैं ,माँ वह होती हैं जो पालती हैं ,पोसती हैं ,संरक्षण करती हैं ,इस अर्थ से प्रकृति भी हमारी माँ ही हुई न ! वहाँ जाकर मुझे भी कुछ ऐसा ही लगा जैसे मैं अपनी माँ की गोद में सर रखकर बैठी हूँ , माँ मेरे मन को अपने प्रेम से परिपूर्ण कर रही थी ,अपनी उपस्तिथि से मुझे आत्मिक शांति और आनंद प्रदान कर रही थी ।
हम में से शायद ही कोई होगा जिसे प्राकृतिक सौंदर्य से घृणा हो ,जिसे अपने आस- पास पेड़ पौधे देखना पसंद न हो ,जिसे पेडों की छाया में खड़े रहना ,नरम घास /दूब पर चलना पसंद न हो ,जिसे फूलो की सुगंध से नफ़रत हो ।
हम सभी उन स्थानों पर घुमने जाना पसंद करते हैं ,जहाँ पेड़ पौधों से हरियाली हो,इसलिए हम अपने आस पास उद्यान (गार्डन )बनाते हैं ,सुबह शाम वहाँ घुमने जाते हैं ।
प्रकृति हमारी माँ हैं उसने हमें धुप ,गर्मी ,मौसम की मार से हमेशा संरक्षण प्रदान किया हैं ,शुद्ध हवा दी हैं ,फलफूल ,भोजन दिया हैं । फ़िर भी हमने उसके साथ क्या किया ?अपने घर बनाने के लिए ,शॉपिंग मॉल बनाने के लिए ,फेक्ट्री बनाने के लिए उसे ही खत्म किया हैं .हर बार एक घर के लिए ४ -८ वृक्ष कटते हैं ,शहरो में हरी धरती देखना किस्से कहानियो की बात हो गयी हैं , साफ हवा की तो क्या कहिये ,रात के दस -१२ बजे भी वाहनों का धुआं वातावरण में इस कदर घुला मिला रहता हैं , उस समय भी वाहनों के धुएँ वाली हवा के कारण घुटन होती रहती हैं । कभी कभी सोचती हूँ आरोही जब बड़ी होगी तो उस समय ये बची खुची प्राकृतिक सुंदरता क्या उसे या उसके बच्चो को देखना नसीब होगी ?
जब भी कभी मेरे सामने एक पेड़ कटता हैं ,मेरे मन जोर जोर से रोता हैं ,उस पेड़ काटने वालो से पूछता हैं ,निर्दय मनुष्य इस सुंदर ,निर्दोष वृक्ष ने तुम्हारा क्या बिघाडा हैं ?यह तो मात्र थोड़ा सा पानी मांगता हैं ,निस्वार्थ भाव से ,सभीको ,छाया देता हैं .कभी सुंदर फूलो से तुम्हारे घर के सामने की राह को ढक कर तुम्हारे घर को सजाता हैं ,कभी स्वादिष्ट फलो से बच्चो के हृदयों को आनंद से भर देता हैं । पर हज़ार चाहने के बाद, कोशिशों के बाद भी पेड़ कटता हैं ?हरी भरी वसुंधरा ,पत्थरों की मीनार में ,हवेली में ,बंगले में ,फेक्ट्री से निकलने वाले रसायनों से जलकर ख़त्म होकर ,मरुभूमि में बदल जाती हैं । और मैं प्रकृति माता से माफ़ी मांगती हुई उसे पुकारती रहती हूँ ,पूछती रहती हूँ माँ तुम कहाँ खो गयी ?