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Friday, February 28, 2020

विश्वास




आज एक अरसे बाद बंजर जमीं पर बारिश के पानी की बूंद गिरी ,रेगिस्तान बन रही धरती को महसूस हुआ उसका तन अब भी माटी ही हैं ,कोमल ,नरम , महकती माटी। ऊपर का आवरण जड हो गया हो भले ही ; अंदर की कोमलता जस की तस हैं। इस अनुभूति ने उसे फिर से जगाया ,प्रेम नाम की एक कोपल माटी के अंतर में गहरे छुपे बैठी थी , अचानक ही फुट बहार आयी, आकाश  के नैनों से ढलते जादू ने धरती के ह्रदय में एक मोती अंकुरित किया और प्यार की एक नाजुक सी कोपल बहार आयी , बहार आते ही उसने धुप को देखा ,उस धुप ने उसे रौशनी से नहलाया ,उसकी आशा भरी चमकीली आँखों में एक सपना फिर से जगाया ,धरती के ह्रदय से एक टीस सी उभरी ,इसी सपने को ,इसी कोपल को न जाने कब से अपने अंदर दबाये बैठी थी ,खिलने नहीं देना चाहती थी ,खुद से छुपा लेना चाहती थी ,डरती थी यह कोपल कही पौधे का , फिर वृक्ष का रूप न ले ले।  धरा को हमेशा से डर लगता रहा हैं इस कोपल के खिलने से ,न जाने कितनी सदियों से यह कोपल मन को तीव्र वेदनाएँ दे रही हैं , कितना भी दबा के रखो ,छुपा लो,मुंह बंद करके रखो दर्द के रूप में बाहर आ ही जाती हैं। धारणी को भी नहीं पता कितने जन्मों नए -नए देशो,नए - नए रूपों को धर उसने इस कोपल को जन्म दिया हैं और हर बार कोपल की संवेदनाएं धरती के लिए मृत्यु का रूप बन सामने आयी हैं।  अभी -अभी ही तो धरती फिर स्थिर हो पायी हैं और न जाने कबसे मुँहजोरी करती ,हर श्वास के साथ बाहर आने को उद्युत यह कोपल आज पुनः बाहर आ गयी हैं।
पता नहीं क्यों पर लगता हैं इस बार इस कोपल का यूँ निकल आना सही हैं ,इस बार उसने चुना स्थान भी सही हैं और मौसम भी । धरणी को अब भी डर हैं अगर अंबर ने साथ न दिया और कोपल बिन पानी धुप के किसी जंगली वृक्ष की तरह बढ़ती ही गयी तो इस बार धरती का अंत सुनिश्चित हैं ,सोच रही हैं खिलने से पहले ही इसे वापस अंदर दबोच ले ,अगर बाहर आना चाहे तो किसी माँ की तरह मौसम का अंदाज़ लगाते हुए किश्तों में बाहर  आने दे। कोपल का यह अचानक खिल के बाहर आना और बेलगाम बढ़ते जाना न उसके लिए सही हैं न धरती के लिए। 
फिर भी अपनी माटी को गीला पाकर  धरा प्रसन्न हैं ,खिल उठी हैं ,खुशबु बन बिखर रही हैं ,न जाने क्यों संवर रही हैं ,इस बार उसे भरोसा हैं की उसका अंतर और वृहतअंतर सारे अंतर ख़त्म कर अनंत हो जायेंगे ,एक हो जायेंगे। न जाने किस बात का विश्वास हैं ,किस पर विश्वास हैं ,स्वयं पर , निलगगन पर नन्ही सी खिली उस सुंदर नवजात कोपल पर  या ह्रदय  में छुपे सत्य पर? 

ह्रदय कहता हैं यह कथा की शुरुवात हैं अंत नहीं ,यह नवोन्मलित प्रेम की अनुहार नहीं युगों से मिलनातुर प्रेम की मनुहार हैं ,यह क्षण भर की परिकल्पना नहीं अनेकानेक जन्मों से संग चली आनंद की संकल्पना और जीवन का सत्य हैं ,इस बार कोपल का खिलना , आसमान   का झुकना और धरती का गगन का मिलन हो पाना सब सत्य हैं ,व्योम की आँखों से गिरी एक बूंद का छोटी सी धार में परिवर्तित हो नदी बन अपने सत्य की और दौड़ जाना और सागर रूपी उस सत्य में विलय पाना ,कोपल का वृक्ष बन धरती के अंत तक खिलखिलाके लहलाहना सत्य हैं ,इस बार  प्रेम पुनर्जन्म और जीवन सत्य हैं। इस बार कोपल का जन्म सत्य हैं। 

©️ राधिका वीणासाधिका (राधिका आनंदिनी)
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