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Friday, January 29, 2016

जैसे भाव तिहारे


कहते हैं ये संपूर्ण जगत  भाव मात्र हैं ,भाव से बना ,भाव से रचा ,भावों से सजा ,भाव निर्मित भाव -विश्व ।
सूर्य की रौशनी हो ,चाँद और चांदनी हो ,अमावस की कालिमा हो या भादो की पूर्णिमा हो सब कुछ मात्र भाव !
भाव मन ,भाव तन ,भाव ही धन।
नाना रत्नो ,विल्व पत्रो ,पायस से पूर्ण सुवर्ण घट ,मृदंग -वीणा  का वादन , हीरे रत्नो से मंडित सोने के छत्र  यह सब मैं तुम्हे अपने भाव से अर्पण करती हूँ , माना की मेरे हाथ में तुम्हे चढ़ाने के लिए एक गेंदे का पुष्प मात्र ही हैं किन्तु मेरा भाव वृहत हैं। .....
 सुना हैं  मानस पूजा का पुण्य उतना ही हैं जितना इस प्रपंच के साथ की गयी वास्तविक पूजा का।  कलश के मुख में विष्णु ,कंठ में रूद्र और मूल में ब्रह्मा जी का वास हैं इस कलश में निवास करने हेतु सातों पवित्र नदियों का जल आमंत्रित हैं।
मस्तिष्क तर्क करता हैं.......   मस्तिष्क तर्क करता हैं कि  मात्र मन में भाव रख मूर्ति पर सुवर्ण पुष्प चढ़ाने से क्या सच में सुवर्ण पुष्प ईश्वर पर चढ़ जाया करते हैं ? क्या भोजन से भरी थाली सामने रख पानी के छीटों के साथ मन्त्र बुदबुदाते हुए हाथ हिलाने से भगवान  भोग खाया करते हैं ?  हवा में हाथ हिलाने से और  कहने से की रोगी को हमने हीलिंग दी हैं क्या रोगी का रोग दूर हो सकता हैं ? क्या सूर्य की किरणों को भाव मात्र से पकड़कर बीमार शरीर पर फेर देने से क्लीनिंग हो जाया करती हैं ?
कहते हैं प्रार्थना में बड़ी शक्ति हैं पर प्रार्थना करनी किसकी हैं ,जिसे देखा नहीं फकत मन में  भाव धर लिया उसकी ? मन के भाव ने जो छवि मान ली उसकी ?

डर लगता हैं उस खंडहर में जाते हुए , कहते हैं वहां भुत हैं।   माँ कहती हैं भुत -वुत कुछ नहीं होता तुम्हारे मन का भाव हैं बस !  पिताजी कहते हैं  "भित्र्या पाठी ब्रह्मराक्षस " अर्थात जिसके मन में डर का भाव बैठ गया हैं उसके साथ ब्रह्मराक्षस। ये क्या हैं भई ! अगर सब कुछ बस  भाव हैं तो हम क्या हैं ? आप क्या हैं ? वास्तविक दिखने वाला , शरीर धारण करने वाला , हँसने - बोलने वाला सारा जग क्या हैं ?

सुना हैं की मंगोलिया में एक २०० वर्ष के संत मिले  हैं ध्यान में लीन। २०० वर्ष ध्यान में लीन ?  यह ध्यान का कैसा भाव हैं की २०० वर्ष बीत गए  और उन्हें खबर भी नहीं !
शंकराचार्य कह गए ब्रह्मं सत्य जगन मिथ्या।  भाव - विश्व  के लोग कहते हैं भाव सत्य जगन मिथ्या , तर्कशास्त्री कहते हैं प्रत्यक्ष सत्य इतरत्र मिथ्या।
इस सत्य - मिथ्या के झमेले में  हम जैसे मूढ़मतियों का क्या ? किसे माने सत्य और कहे किसे मिथ्या ?

माना की इंसानी मस्तिष्क बहुत चतुर और ज्ञानी हैं ,विज्ञान पर उसकी श्रद्धा और वह हर रूप में विज्ञानी हैं।  किन्तु मस्तिष्क के ऊपर , उससे भी अधिक सयाना और सज्ञान एक तत्व हैं  और वह हैं आत्मतत्व।
सारे जग में अगर कुछ सत्य हैं तो वह हैं आत्मतत्व ,यह आत्मतत्व  जीवधारियों में हैं अजीवधारियों में हैं ,स्थूल में हैं ,सूक्ष्म में  हैं ,शरीरधारियों में हैं ,अशरीरधारियों में हैं  , विस्तार में हैं ,अंतराल में हैं ,अगम -निर्गम -दुर्गम  पर्वत प्रस्तार में हैं। इस आत्मतत्व का कोई रूप नहीं ,गंध नहीं , दर्शन नहीं ,धर्म- सम्प्रदाय ,अनास्था नहीं। यह आत्मतत्व हर एक में विद्यमान , कण में कण विराजमान ,सर्वशक्तिवान और अखंड सत्तावान हैं। क्योकि इसका कोई रंग-रूप- गंध नहीं इसलिए सृष्टि  में जहाँ - जहाँ जो कुछ भी दृशय -अदृश्य ,सहनीय -असहनीय हैं वह सब आत्मतत्व हैं आत्मा हैं , चैतन्य हैं।  यही आत्म तत्व ,जीवआत्म,परमात्म ,ब्रह्मात्म हैं। अब चूँकि इसे देखा-सुना -मिला-कहा -धोया -सुखाया -काटा -पिटा-लटकाया -उलटाया -भड़काया -सुलझाया नहीं जा सकता इसलिए एकमात्र भाव ही  हैं जिससे इसे समझा जा सकता है ,देखा -सुना -सहलाया -बतलाया जा सकता हैं।   इसलिए हम जहाँ कही भी जिस भी भाव के साथ आते -जाते- गुनते -गाते -कहते-रोते -हँसते -बतियाते हैं वही जीवन का सत्य बन जाता हैं ,हम जो भी करते हैं -भोगते हैं -पाते और खोते हैं उसके पीछे युगों -युगो से संजोया हमारा भाव होता हैं। यही भाव हमें मनुष्य बनाता हैं ,जीवन से मोह लगाता हैं ,जीवन से वितृष्णा करवाता हैं और यही भाव आत्मतत्व में लीन हो भवतम हो जाता हैं। भव सागर  भाव - सागर हैं  और भावमय आत्म भवात्म। इसलिए ही शायद संत कबीर कह गए हैं "मन चंगा तो कटौती में गंगा " .
भावों में बहकर प्रेम किया जाता हैं ,भावों में बहकर ही संगीत रचा जाता हैं ,भावों के बंधन में बंधे भावमय ह्रदय से ही जीवन जिया जाता हैं। तभी तो भावों से चढ़ाया अमृत सत्य हैं तो भाव से की गयी किसी की हत्या भी उतनी ही सत्य।

" कारी मूरत में पा गए श्याम नटनागर न्यारे ,मूरत कारी चाहे रही साँचे भाव हमारे " ..........


 डॉ. राधिका 



                                                                                                                           

2 comments:

  1. राधिका तुझे हे लिखाण म्हणजे निरभ्र, नितळ पाण्यातले प्रतिबिंब आहे..त्याला एक जशी वैचारिक डूब आहे तशीच करुणेची झालर आहे..जी तुझ्या कलेतही आहे...हे सगळी तुझ्या जीवनानाची तुला मिळालेली देणगी आहे. अनुभवाला चिकटलेला मी दूर केला की गुहेचे एक दार उघडते आणि आतील संपत्ती हाताला लागते जियो राधिका.

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