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Thursday, January 25, 2018



आज सुबह से आपसे बात करने का बड़ा मन हैं , बड़ा मन हैं की आपसे अपने मन की बात कहूं ,पर जब आसपास देशभक्ति गीतों का शोर -शराबा हो तो कुछ भी कहना - सुनना कठिन हैं। शोर -शराबा इसलिए कह रही हूँ क्योकि आसपास की दसों इमारतों से दस दिशाओं में गूंजते दसों गीत एक साथ सुनायी दे रहे हैं और कुछ भी समझ नहीं आ रहा। लाउड स्पीकर की आवाज में मन की आवाज कुछ दब सी गयी हैं ,इसे घुटन नहीं बनाना चाहती सो लिख दे रही हूँ ,इसे खत समझें ,मेरी आवाज समझे या दर्द समझे, या जो चाहे समझे , आप पर छोड़ रही हूँ। 

कभी-कभी सोचती हूँ कैसे कहूं ? क्या आपमें से कोई मेरे मन की बात समझेगा ? हमारे देश में जहाँ लड़कियों  के लिए जीवन का अर्थ मौन हैं ,सहनशीलता हैं ,निति -नियम-परम्पराएं -समाज - मान्यताएं हैं ,जहाँ दिल की कहने -सुनंने से पहले उन्हें हज़ारों बार सोचना पड़ता हैं ,जहाँ लड़कियों के लिए मन नाम की कोई वस्तु ही नहीं हैं ,उनके लिए स्वतंत्रता के मायने ही कुछ निराले हैं ऐसे में एक लड़की का बिंदास्त किसी सोशल मिडिया प्लेटफार्म पर दिल खोल कर अपनी बात कहना कहाँ तक लोगो को स्वीकार्य होगा ? 

मुझे मेरे विचारो  पर किसी का सिक्का - मोहर  नहीं चाहिए ,नहीं कोई आग्रह हैं। आप सब जानते तो हैं मुझे !अलग सी हूँ मैं !  पर चाहती हूँ की आप जरा सोचे मैं क्या कह रही हूँ ,क्यों कह रही हूँ। 

जरा सोचिये यह सृष्टि क्या चाहती हैं हमसे ? कोई अपेक्षाएं ही नहीं हैं उसकी , सिवाए इसके की हम शांत भाव से अपने काम करे और आनंद से जिए !

पर घर से बाहर कदम निकलते ही दीखते हैं कुढ़े -कचरे के ढेर , जगह -जगह थूके हुए पान के निशान , धरती पर बिछी हुई आधी खत्म सिगरेटों के टुकड़े , धुँआ उड़ाते ट्रक ,आसमान को फोड़ते लाउड-स्पीकर्स ,अधकटे - सूखे ह्रदय फाड कर रोते पुराने वट-वृक्ष , सूखती नदियां , विमान की तरह जमीनी वाहनों को उड़ाते पशु , मातृ रुपेण संस्थिता कहकर पूजते , घर में बंदिशों -पहरों में रखते ,सड़क पर दुर्व्यहवार करते भारत के वीर नर। बड़ी -बड़ी बातें करते ,पुल -पुलियाँ और सपने बंधवाते और एक ही पल में सब -कुछ दंगे -फसाद -धोखों -घोटालों की आड़ में ढहा देते वो महान नेता गण।  किसी के पास विषय हैं ,किसी के पास धर्म हैं ,किसी के पास मूर्तियां हैं ,इतिहास हैं ,शान,मान ,अभिमान हैं और सबकी आड़ में छुपी राजनीती हैं।  

ये सब देखती हूँ तो लगता हैं हमारा घर भला ! पर घर वाकई भला हैं ? यहाँ राजनीती क्या कम हैं ? एक दूसरे से जलन , धोखा ,स्वार्थ ,घृणा ,बिन सर-पैर की बात पर लड़ाइयाँ ,अपने पड़ोसी को निचा दिखलाने की होड़ , अपना बैंक बैलेंस बढ़ाने की होड़ , अपने बच्चो को ब्रिलियंट बतलाने की होड़ ,अपना सोफा पड़ोसी के सोफ़े से अच्छा ,अपने कपडे सहेली के कपड़ो से ब्रांडेड ,अपना छत पीओपी की डिजाइनर छत बतलाने की होड़ !

क्या हो रहा हैं ये ? और क्या ढूंढ रही हूँ मैं ? जानती हूँ की आज भी हर मन के अंदर एक छुपे हुए कोने में सच्चे प्यार की आस हैं ,हर इंसान को अखंडित विश्वास की चाह हैं ,यहाँ हर कोई शांति -सुख -प्रेम और आनंद की तलाश में हैं। पर फिर क्या हैं जो हमें रोक रहा हैं ? क्या हैं जो हमें शांत -सुखी -समृद्ध -आनंदित नहीं होने दे रहा ? क्यों हम आज भी भटक रहे हैं ? तरस  रहे हैं ? तड़प रहे हैं ?  लड़ रहे हैं ? सहन कर रहे हैं ? सर पर वजन ढो -ढो कर हॉस्पिटल्स को अमीर कर- कर जी रहे हैं ,बिन आधार का ,बिन उद्देश्य का ,छोटे और स्वार्थी उद्देश्यों से भरा  एक खोखला -आधा -अधूरा जीवन जी रहे हैं ? 

इस सबका कारण सिर्फ एक हैं।  हमारे अपने झूठे विश्वास ,हमारी अपनी बनायीं हुई झूठी लक्ष्मण रेखाएं ,हमारी अपनी संकुचित सोच ,हमारे अपने तक ,अपने  झूठे चित्र तक सिमित विचार ! 

कितना आसान हो जीवन अगर हम स्वयं से शुरुवात करे , पैसा -धन -मान चाहे छोटा मिले या बड़ा ,ह्रदय में संतुष्टि का भाव बड़ा हो ! जीवन सिर्फ मैं तक सिमित न हो ,जीवन, "हम " हो जाएँ ,जीवन सिर्फ एक धर्म ,परंपरा ,जाती ,नाता न हो , जीवन ब्रह्माण्ड बन जाएँ। धरती को टुकड़ो में,देशों में ,प्रदेशों में ,नगरों में ,घरों में बाटने वाले हम हैं ,क्यों न घर -नगर -प्रदेश -देश फिर जगत बन जाएँ। ये पानी जो नदियों में बह रहा हैं किसी एक धर्म ,जाती ,सम्प्रदाय ,आस्था ,देश का नहीं ,ये आक्सीजन जो बिन मोल हमें मिल रही हैं किसी एक श्वास की बपौती नहीं ,यह जो पहाड़ो के अंदर खजाना भरा पड़ा हैं किसी मजहब किसी एक राष्ट्र मात्र का नहीं ,इस पर सबका सामान -संतुलित अधिकार हैं। 

लड़ाइयां सिर्फ इसलिए हैं क्योकि हर कोई श्रेष्ठत्व चाहता हैं ,हर कोई अधिक चाहता हैं ,हर कोई संपूर्णत्व चाहता हैं। लेकिन हर कोई भूल रहा हैं ,संपूर्णत्व ,श्रेष्ठत्व भिन्नत्व में नहीं ,एकत्व में हैं।  जरा सी बात हैं ,हमें स्वयं से ऊपर उठकर सोचना हैं ,जीवन सिर्फ घर की चारदीवारी में नहीं ,अपने हिस्से का पानी ,अपने देश का तेल , अपनी अलग मान्यताएं  में नहीं , जीवन अपने सम्पूर्ण विकास में हैं। विकास किसी को निचा दिखा कर ,किसी को छोटा बतला कर ,किसी से होड़ कर नहीं होता ,विकास होता हैं अपने काम पर पूरा फोकस करके ,पूरा ध्यान अपने आप से खींच कर , स्वयं से उठकर,स्वयं को भूल कर , संसार  हो जाने में ,वो कार्य  हो जाने में।  

हर कोई यही सोचता हैं मेरा अकेले का काम थोड़ा हैं ,सब मजे कर रहे हैं मैं क्यों अकेला भोगु ? माता -  पिता बच्चो को पूर्व निर्धारित सांचे में ढाल रहे हैं। सब के सर पर सील -सिक्के ठुके हैं ,ये बहन हैं ,ये बेटी हैं ,ये बहुं हैं, ये सास हैं ,ये पिता हैं ,ये दोस्त हैं ,ये आदमी हैं ,ये औरत हैं ,ये गवर्मेंट एम्प्लोयी हैं ,ये बिज़नेस वीमेन हैं ,ये आर्टिस्ट हैं ,ये घरवाले हैं ,ये बाहरवाले हैं ,ये नेता हैं ,ये प्रजा हैं ,ये गरीब हैं ,ये अमीर हैं ,ये ईसाई हैं ,ये हिन्दू हैं ,ये मुस्लिम हैं ,ये नास्तिक हैं ,ये आस्तिक हैं ,ये बूढ़ा हैं ,ये जवान हैं ,ये भक्त हैं ,ये अमका -ढिमका -तमका हैं। 
मुझे नहीं पता ये सब क्या हैं।  
दुःख इस बात का हैं मुझे इन सब रूपों को मानते -सँभालते जीना पड रहा हैं। मुझे मानव की खोज हैं ,मुझे इंसान की तलाश हैं।,मुझे उन कुछ व्यक्तियों की आस हैं जो ,मानव-मन के छोटे -मोटे झगड़ो से ऊपर हो ,जो माता- पिता -भाई -बहन -दोस्त ,धर्म मात्र न हो, जो हो तो सिर्फ मनुष्य ,एक मनुष्य मात्र।  जो अपना -अपना धर्म माने ,अपने -अपने कर्म को जाने ,अपनी परम्पराएं भी निभाले पर सबसे ऊपर मनुष्यत्व को जाने , सहृदयता ,प्रेम शांति और कर्तृत्व को जाने। जिनके लिए सबसे बड़ा कर्म अपने हिस्से का कार्य कर जाना हो ,अपने भाग का ऋण चूका जाना हो। जो भिन्न - भिन्न होकर भी एक हो , जो स्वयं के फायदे -नुकसान से ऊपर आत्मशांति -आत्मशक्ति और समग्र विकास को ध्येय बनावे। जो रक्षक हो ,संरक्षक हो ,प्रबंधक हो। जिनका मंदिर -मस्जिद -गुरुद्वारा केवल माटी - पत्थरों की दीवारे नहीं उनका आत्मतत्व हो । जो जीवन का अर्थ आत्मशांति ,आत्मविकास ,आत्मोद्धार को जाने।

मैं मानती हूँ बहुत से लोग हैं जो ऐसा मानते-जानते और करते हैं।  पर मुझे सिर्फ उन चार- आठ -दस -सौ -हज़ार लोगो की तलाश नहीं हैं  ,मुझे हर व्यक्ति के रूप में ऐसा सोचने-मानने -जानने वालो की आस हैं। मुझे हर इंसान को भ्रम से ऊँचा उठते हुए ,हर समाज को कुछ नया गढ़ते हुए ,हर किसी को लघु स्वार्थो से ऊपर जीते हुए देखना हैं। 

पागल कहते हैं कुछ लोग मुझे ! क्योकि मैं साधारण -सरल जीवन को दरकिनार करते हुए एक प्रबल ,सक्षम ,नविन जीवन की आशा रखती हूँ। मैं मानती हूँ सब कुछ संभव हैं , मैं मानती हूँ बदलाव सिर्फ एक क्षण का  खेल हैं मात्र हमारे निर्णय भर कर लेने इतनी देर का ,मैं मानती हूँ सच्चा -सरल पर उतना ही प्रबल -झंझावात सा ,उठान सा ,पराक्रम सा जीवन जिया जाना संभव हैं। वक्त सिर्फ कल - आज और कल में नहीं ,समय सदैव गतिमान हैं ,उस गति के साथ हमें आगे बढ़ना हैं ,एक उम्र ,एक पल ,एक  जीवन से ऊपर उठ कर सोचना हैं। 

  मेरे विश्वास अलग  हैं ,मैं अलग हूँ पर शायद मैं गलत नहीं हूँ। 


पहले भी पूछ चुकीं हूँ आज भी पूछ रही हूँ ,इस अकेली -अनोखी -विचित्र लड़की का साथ देंगे ? क्या इस गणतंत्र दिवस पर इस निराली कन्या को एकत्व की भेंट देंगे ?


एक अखंड विश्वास के साथ 
शुभ गणतंत्र दिवस 

वीणा साधिका डॉ राधिका 

' मन के इस लिखे पर कौन बावला कॉपीराइट डालेगा ? मेरे मन की सबके मन की बन जावे तो मेरा जीवन धन्य हो जाये।'






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