१७ नवंबर २००५ ..सुबह के १०:३० का समय ..सडको पर वाहनों की भारी आवाजाही,लगता हैं सारी दुनिया घर से बाहर इन रास्तो पर उतर आई हैं ,इस भारी भरकम भीड़ में एक युवती न जाने किन ख्यालो में खोयी जोर जोर से गाती गुनगुनाती हुई चली जा रही हैं ,कई लोग उसे देख रहे हैं ,उनमे से कई ने उसे पागल समझ लिया हैं ,पर वो शायद वहा हैं ही नही,वो तो बस जोर जोर से गा रही हैं ,राग बिहाग में लय तानो के प्रकार बना रही हैं ,अचानक पीछे से एक बस जोर से हार्न बजती हुई,बुरी तरह से ब्रेक मारकर रूकती हैं ,बस कन्डक्टर जोर से चिल्लाता हैं ......अरे बेटी.......
तब कहीं जाकर उस युवती की तंद्रा टूटती हैं । उसे समझ आता हैं की वह सड़क पर गाती हुई जा रही थी,तेज़ कदमो से चलती...लगभग भागती हुई,गंतव्य तक पहुँचती हैं ,और वहां जाकर अपने आप पर खूब हंसती हैं ,आप जानना चाहेंगे वह लड़की कौन थी ? .......................... वह लड़कीथी मैं ।
ऐसा कई बार होता हैं ,कुछ अच्छा सा संगीत सुना ,कोई राग दिलो दिमाग पर छा गया तो सब कुछ भूल कर मैं उस राग में खो जाती हूँ । शायद यही हैं कला का जादू ।
एक और घटना सुनिए , मेरे पतिदेव को लौकी के कोफ्ते बहुत पसंद हैं ,एक दिन सोचा आज बनाये जाए,लौकी ली,बेसन घोला ,और रेडियो ऑन,पंडित रविशंकर जी राग मारवा बजा रहे थे ,बस फ़िर क्या था,बड़ा सुरीला माहौल बन गया ,साथ लौकी के कोफ्ते भी बन गये ,कोफ्ते बनाने के बाद तक़रीबन में एक घंटा सोचती रही ,आज कोफ्ते हमेशा जैसे क्यो नही दिख रहे?क्या कमी रह गई? ..तब तक रेडियो पर समाचार शुरू हो गए ,रेडियो बंद किया और फ़िर लौकी के कोफ्ते देखे ,तब कहीं ध्यान आया की ....लौकी के कोफ्ते में मैं लौकी डालना भूल गई सितार सुनते हुए । तब क्या करती भजिये की सब्जी पतिदेव को खिलाई ।
ये कुछ मजेदार घटनाये थी जो मेरे साथ हुई ,कलाकार के साथ ऐसा अक्सर होता हैं ,कला लेखन हो ,संगीत हो ,चित्रकला हो,या और कोई,कलाकार एक बार कला समुन्दर में डूब गया की उसे निकालना ,जग के रक्षक विष्णुदेव को भी संभव नही होता ,उसे सारी दुनिया से अपनी दुनिया अच्छी लगती हैं,वह औरो के बीच में होकर भी कहीं खोया हुआ होता हैं,कुछ न कुछ सोचता रहता हैं,संगी संबंधी या तो उसे पागल करार देते हैं ,या उनकी नाराज़गी उससे कई कई गुना बढ़ जाती हैं । पर जिन्होंने कला से नाता जोड़ा हैं,जो कलाकार हैं वो जानते हैं की कला का जहाँ कितना अनोखा हैं ,प्रेमी युगल को जिस तरह जग की परवाह नही होती वैसे ही सारा जमाना चाहे शत्रु क्यो न बन जाए,हँसे ,पागल कहे ,पर कलाकार अपने कला विश्व को कभी नही भूलता ,उसमे जीना कभी नही छोड़ता । कला ही उसे परमानन्द देती हैं ,जीवनानंद देती हैं ,आत्मानंद देती हैं ,जो सुनता हैं ,पढ़ता हैं,समझता हैं ,वह कलाकार की इस दुनिया की कद्र करता हैं ,और ऐसे क़द्रदानो के कारण ही कलाकार जी पाता हैं ,अपनी कला को तराश पाता हैं . कहते हैं न..
तंत्री नाद कवित्त रस सरस राग रति रंग ।
अनबुढे बुढे तीरे जो बुढे सब अंग । ।
तो ऐसा हैं कला का अनोखा जहाँ ।
बहुत बढ़िया प्रस्तुतिकरण!
ReplyDeletehaha bahut khoob...
ReplyDeleteaisa mere sath bhi kabhi kabhi ho jata hai..
AREY radhika ji...kalaakar duniyaa me rehta kahan hai ?..uski apni hi alag zameen/aasman hota hai..tabhi kuch naya srijan kartaa hai..aapki post bahut acchhi lagi
ReplyDeleteक्या बात है? सुन्दर प्रस्तुति। बधाई।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
आप ने खूब याद दिलाया। मेरे मामा जी और उन के साथी बालचंद जी जैन जो हमारे इलाके के शास्त्रीय संगीत के उस्ताद रहे। तब चौदह-पन्द्रह साल के रहे होंगे, वे मनोहरथाना जैसे छोटे से कस्बें रहते थे। नदी से नहा कर, हाथ में गीले कपड़े लिए चलते। वहाँ से गाना प्रारंभ करते नगर द्वार में घुस कर दोनों अलग अलग रा्स्तों पर चल देते दोनों रास्ते बाद में बाजार में मिलते तब वे देखते कि उन की ताल एक सी है या नहीं।
ReplyDeleteदोनों बाद में अच्छे गायक हुए। एक उस्ताद और एक शौकिया।
मजेदार पर दरावनी घटना, कलाकार होने का मतलब यह तो नहीं कि जान ही जोखिम में डाल दें।
ReplyDeleteशायद पतिदेव को तो कोफ्ते की बजाय भजिये खाने में परेशानी नहीं होगी। परन्तु अब आप पर दो आरोही(यों )के साथ वीणापाणी की भी जिम्मेदारी है।
इसे कहते है ब्लोगिंग ना कोई लाग लपेट बस सीधी दिल से !
ReplyDeleteमतलब कभी आप के यहां खाने पर आये तो टि्फ़िन घर से ले कर आये :)
ReplyDeleteअजी यही तो है दिवानापन, प्यार, जी जब हम किसी भी चीज से लगन लगा के, प्यार करने लगे तो यह निशानी है सच्चे प्यार की सच्ची लगन की, लेकिन भाई थोड सम्भल कर,बहुत अच्छा भी लगा, ओर डर भी...
ध्यान से
धन्यवाद
अच्छा लिखा है आपने । िवषय की अभिव्यक्ित प्रखर है ।
ReplyDeleteमैने अपने ब्लाग पर एक लेख महिलाओं के सपने की सच्चाई बयान करती तस्वीर लिखा है । समय हो तो उसे पढें और राय भी दें-
http://www.ashokvichar.blogspot.com
सँगीत और कला ईश्वर की कृपा और प्रसाद है राधिका जी -
ReplyDelete" ये मेरा दीवानापन है
या मुहब्बत का सिला
तू ना पहचाने तो है ये,
तेरी नज़रोँ का कुसूर "
यही गाते हुए आप
और बिन लौकी के कोफ्ते
खिला दीये
तो भी क्या से क्या हो जाता ! :)
- लावण्या
bahut mazedar prasang raha..bina lauki ke koftey!
ReplyDeletesangeet hi nahi kisi bhi kalaa ka shauk agar junoon ban kar dimagh par chha jaata hai to aisey incidents aksar hote hain
iseeliye to log kalakaar ko 'diwana' bhi kahtey hain.
अच्छा लिखा है आपने.
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